Listen मनुष्यमात्रके भीतर स्वाभाविक ही एक ज्ञान अर्थात् विवेक है
। साधकका काम उस विवेकको महत्त्व देना है । वह विवेक पैदा नहीं होता । अगर वह पैदा
होता तो नष्ट भी हो जाता; क्योंकि पैदा होनेवाली हरेक चीज नष्ट
होनेवाली होती है‒यह नियम है । अतः विवेककी उत्पत्ति नहीं होती, प्रत्युत
जागृति होती है । जब साधक अपने
भीतर उस स्वतःसिद्ध विवेकको महत्त्व देता है,
तब वह विवेक जाग्रत् हो जाता है । इसीको तत्त्वज्ञान अथवा बोध
कहा जाता है । मनुष्यमात्रके भीतर स्वतः यह भाव रहता है कि मैं बना रहूँ, कभी
मरूँ नहीं । वह अमर रहना चाहता है । अमरताकी इस इच्छासे सिद्ध होता है कि वास्तवमें
वह अमर है । अगर वह अमर न होता तो उसमें अमरताकी इच्छा भी नहीं होती । जैसे,
भूख और प्यास लगती है तो इससे सिद्ध होता है कि ऐसी वस्तु (अन्न
और जल) है, जिससे वह भूख-प्यास बुझ जाय । अगर अन्न-जल न होता तो भूख-प्यास भी नहीं लगती ।
अतः अमरता स्वतःसिद्ध है । यहाँ शंका होती है कि जो अमर है, उसमें
अमरताकी इच्छा क्यों होती है ? इसका समाधान है कि अमर होते हुए भी जब उसने अपने
विवेकका तिरस्कार करके मरणधर्मा शरीरके साथ अपनेको एक मान लिया अर्थात् ‘शरीर ही मैं
हूँ’‒ऐसा
मान लिया, तब
उसमें अमरताकी इच्छा और मृत्युका भय पैदा हो गया । मनुष्यमात्रको इस बातका विवेक है कि यह शरीर (स्थूल, सूक्ष्म
तथा कारणशरीर) मेरा असली स्वरूप नहीं है । शरीर प्रत्यक्ष रूपसे बदलता है । बाल्यावस्थामें
जैसा शरीर था, वैसा आज नहीं है और आज जैसा शरीर है, वैसा आगे नहीं रहेगा । परन्तु मैं वही हूँ अर्थात् बाल्यावस्थामें
जो मैं था, वही मैं आज हूँ और आगे भी रहूँगा । अतः मैं शरीरसे अलग हूँ और शरीर मेरेसे अलग
है अर्थात् मैं शरीर नहीं हूँ‒यह सबके अनुभवकी बात है । फिर
भी अपनेको शरीरसे अलग न मानकर शरीरके साथ एक मान लेना अपने विवेकका निरादर है, अपमान
है, तिरस्कार
है । साधकको अपने इस विवेकको महत्त्व
देना है कि मैं तो निरन्तर रहनेवाला हूँ और शरीर मरनेवाला है । ऐसा कोई क्षण नहीं है,
जिसमें शरीर मरता न हो । मरनेके प्रवाहको ही जीना कहते हैं ।
वह प्रवाह प्रकट हो जाय तो उसको जन्मना कह देते हैं और अदृश्य हो जाय तो उसको मरना
कह देते हैं । तात्पर्य है कि जो हरदम बदलता है, उसीका नाम जन्म है, उसीका नाम स्थिति है और उसीका नाम मृत्यु है । बाल्यावस्था मर
जाती है तो युवावस्था पैदा हो जाती है और युवावस्था मर जाती है तो वृद्धावस्था पैदा
हो जाती है । इस तरह प्रतिक्षण पैदा होने और मरनेको ही जीना (स्थिति) कहते हैं । पैदा
होने और मरनेका यह क्रम सूक्ष्म रीतिसे निरन्तर चलता रहता है । परन्तु हम स्वयं निरन्तर
ज्यों-के-त्यों रहते हैं । अवस्थाओंमें परिवर्तन होता है, पर
हमारे स्वरूपमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता । अतः शरीर तो निरन्तर मृत्युमें
रहता है और मैं निरन्तर अमरतामें रहता हूँ‒इस विवेकको महत्त्व देना है । गीतामें आया है‒ वासांसि जीर्णानि
यथा विहाय नवानि
गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय
जीर्णान् यन्यानि
संयाति नवानि देही ॥ (२ । २२) ‘मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये
कपड़ोंको धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये
शरीरोंमें चला जाता है ।’ जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़नेसे हम मर नहीं जाते और नये कपड़े धारण
करनेसे हम पैदा नहीं हो जाते, ऐसे ही पुराने शरीरको छोड़नेसे हम मर नहीं जाते और नया शरीर धारण
करनेसे हम पैदा नहीं हो जाते । तात्पर्य है कि शरीर मरता है,
हम नहीं मरते । अगर हम मर जायँ तो
फिर पुण्य-पापका फल कौन भोगेगा ? अन्य योनियोंमें कौन जायगा ? बन्धन
किसका होगा ? मुक्ति किसकी होगी ? शरीर नाशवान् है, इसको कोई रख सकता ही नहीं और हमारा स्वरूप अविनाशी है,
इसको कोई मार सकता ही नहीं‒ अविनाशि
तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य
न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ (गीता २ । १७) अविनाशी सदा अविनाशी ही रहेगा और विनाशी सदा विनाशी ही रहेगा
। जो विनाशी है, वह हमारा स्वरूप नहीं है । हमने कुर्ता पहन लिया तो क्या कुर्ता हमारा स्वरूप हो
गया ?
हमने चादर ओढ़ ली तो क्या चादर हमारा स्वरूप हो गयी ?
जैसे हम कपड़ोंसे अलग हैं, ऐसे ही हम इन शरीरोंसे भी अलग हैं । इसलिये हमारे मनमें निरन्तर
स्वतः यह बात रहनी चाहिये कि मैं मरनेवाला नहीं हूँ, मैं तो अमर हूँ । ‘अमर जीव मरे तो काया’
जीव अमर है, काया मरती है । अगर इस विवेकको महत्त्व दें तो मरनेका भय मिट
जायगा । जब हम मरते ही नहीं तो फिर मरनेका भय कैसा ? और जो मरता ही है, उसको रखनेकी इच्छा कैसी ? हमारा बालकपना नहीं रहा तो अब हम बालकपनेको लाकर नहीं दिखा सकते;
क्योंकि वह मर गया, पर हम वही रहे । अतः शरीर सदा मरनेवाला है और मैं सदा अमर रहनेवाला
हूँ‒इसमें क्या सन्देह रहा ? अब केवल इस बातका आदर करना है, इसको
महत्त्व देना है, इसका स्वयं अनुभव करना है, कोरा
सीखना नहीं है । जैसे धन मिल जाय
तो भीतरसे खुशी आती है, ऐसे ही इस बातको सुनकर भीतरसे खुशी आनी चाहिये और जीनेकी इच्छा
तथा मरनेका भय नहीं रहना चाहिये ! कारण कि जिस बातसे हमारा दुःख,
जलन, सन्ताप, रोना मिट जाय, उसके मिलनेसे बढ़कर और क्या खुशीकी बात होगी ! ऐसा लाभ तो करोड़ों-अरबों
रुपयोंके मिलनेसे भी नहीं होता । कारण कि अरबों-खरबों रुपये मिल जायँ और पृथ्वीका राज्य
मिल जाय तो भी एक दिन वह सब छूट जायगा, हमारेसे बिछुड़ जायगा ! अरब
खरब लौं द्रव्य है, उदय अस्त
लौं राज ।
तुलसी जो निज मरन है, तो आवे
किहि काज ॥ |