।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

अमरताका अनुभव



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हम शरीरमें अपनी स्थिति मान लेते हैं, अपनेको शरीर मान लेते हैं तो यह हमारी गलती है । गलत बातका आदर करना और सही बातका निरादर करना ही मुक्तिमें खास बाधा है । अपनेको शरीर मानकर ही हम कहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ । वास्तवमें हम न बालक हुए, न हम जवान हुए, न हम बूढ़े हुए, प्रत्युत शरीर ही बालक हुआ, शरीर ही जवान हुआ, शरीर ही बूढ़ा हुआ । शरीर बीमार हो गया तो मैं बीमार हो गया, शरीर कमजोर हो गया तो मैं कमजोर हो गया, धन पासमें आ गया तो मैं धनी हो गया, धन चला गया तो मैं निर्धन हो गया‒यह शरीर और धनके साथ एकता माननेसे ही होता है । जब क्रोध आता है, तब हम कहते हैं कि मैं क्रोधी हूँ ! विचार करें, क्या क्रोध सब समय रहता है ? सबके लिये होता है ? जो हरदम नहीं रहता और जो सबके लिये नहीं होता, वह मेरेमें कैसे हुआ ? कुत्ता घरमें आ गया तो क्या वह घरका मालिक हो गया ? ऐसे ही क्रोध आ गया तो क्या मैं क्रोधी हो गया ? क्रोध तो आता है और चला जाता है, पर मैं निरन्तर रहता हूँ ।

देश बदलता है, काल बदलता है, वस्तुएँ बदलती हैं, व्यक्ति बदलते हैं, क्रिया बदलती है, अवस्था बदलती है, परिस्थिति बदलती है, घटना बदलती है, पर हम निरन्तर रहते हैं । जाग्रत्, स्वप्‍न और सुषुप्‍ति‒यें तीनों अवस्थाएँ बदलती हैं, पर हम तो एक ही रहते हैं, तभी हमें अवस्थाओंका और उनके परिवर्तनका अर्थात् उनके आरम्भ और अन्तका ज्ञान होता है । स्थूल दृष्टिसे विचार करें तो जैसे हम हरिद्वारसे ऋषिकेश आये तो पहले हम हरिद्वारसे रायवाला आये, फिर रायवालासे ऋषिकेश आये । अगर हम हरिद्वारमें ही रहनेवाले होते तो रायवाला और ऋषिकेश कैसे आते ? रायवालामें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और ऋषिकेश कैसे आते ? ऋषिकेशमें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और रायवाला कैसे आते ? अतः हम न तो हरिद्वारमें रहते हैं, न रायवालामें रहते हैं, न ऋषिकेशमें रहते हैं । हरिद्वार, रायवाला और ऋषिकेश‒तीनों अलग-अलग हैं, पर हम एक ही हैं । हरिद्वारमें भी हम वही रहे, रायवालामें भी हम वही रहे और ऋषिकेशमें भी हम वही रहे । ऐसे ही जाग्रत्‌में भी हम वही रहे, स्वप्‍नमें भी हम वही रहे और सुषुप्‍तिमें भी हम वही रहे । अतः बदलनेवालेको न देखकर रहनेवालेको देखना है अर्थात् अपनेमें निर्लिप्‍तताका अनुभव करना है‒‘रहता रूप सही कर राखो, बहता संग न बहीजे ।’

बदलनेवालेके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है‒यही अमरता (मुक्ति) है । अमरता स्वतःसिद्ध और स्वाभाविक है, करनी नहीं पड़ती । मृत्युके साथ सम्बन्ध तो हमने माना है ।

प्रश्‍न‒अभी सिंह सामने आ जाय तो भय लगेगा ही ?

उत्तर‒भय इस कारण लगेगा कि ‘मैं शरीरसे अलग हूँ’‒यह बात सुनकर सीख ली है, समझी नहीं है । सीखी हुई और समझी हुई बातमें यही फर्क है । तोता अन्य समय तो राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करता है, पर जब बिल्ली पकड़ती है, तब टें-टें करता है, जबकि समय तो अब राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करनेका है ! परन्तु सीखा हुआ ज्ञान समयपर काम नहीं आता ।

सिंह आ जाय तो उससे बचनेकी चेष्टा करनेमें कोई दोष नहीं है, पर भयभीत होना दोषी है । कारण कि मरनेवाला तो मर ही रहा है और जीनेवाला जी ही रहा है, फिर भय किस बातका ? सिंह मारेगा तो मरनेवालेको ही मारेगा, जीनेवालेको कैसे मारेगा ? सिंह खा लेगा तो उसकी भूख मिट जायगी, अपनेमें क्या फर्क पड़ेगा ? मरनेवालेको कबतक बचाओगे ? वह तो मरेगा ही । अतः न जीनेकी इच्छा करनी है, न मरनेका भय करना है ।

एक मार्मिक बात है । सत्संग करनेसे पहले जितना भय लगता है, उतना भय सत्संगके बाद नहीं लगता । सत्संग करनेसे वृत्तियोंमें बहुत फर्क पड़ता है और विकार अपने-आप नष्‍ट होते हैं । परन्तु ऐसा तब होगा, जब हम सत्संगकी बातोंको आदर देंगे, महत्त्व देंगे, उनका अनुभव करेंगे । सत्संगकी बातोंको महत्त्व देनेसे साधकके अनुभवमें ये तीन बातें अवश्य आती हैं‒

(१) काम-क्रोधादि विकार पहले जितनी तेजीसे आते थे, उतनी तेजीसे अब नहीं आते ।

(२) पहले जितनी देर ठहरते थे, उतनी देर अब नहीं ठहरते ।

(३) पहले जितनी जल्दी आते थे, उतनी जल्दी अब नहीं आते ।

इन बातोंको देखकर साधकका उत्साह बढ़ना चाहिये कि जो विकार कम होता है, वह नष्‍ट भी अवश्य होता है । व्यापारमें तो लाभ और नुकसान दोनों होते हैं, पर सत्संगमें लाभ-ही-लाभ होता है, नुकसान होता ही नहीं । जैसे माँकी गोदीमें पड़ा हुआ बालक अपने-आप बड़ा होता है, बड़ा होनेके लिये उसको उद्योग नहीं करना पड़ता । ऐसे ही सत्संगमें पड़े रहनेसे मनुष्यका अपने-आप विकास होता है । अगर जिज्ञासा जोरदार हो और थोड़ा भी विकार असह्य हो तो तत्काल सिद्धि होती है ।

सत्संगसे विवेक जाग्रत् होता है । साधक जितने अंशमें उस विवेकको महत्त्व देता है, उतने अंशमें उसके काम-क्रोधादि विकार कम हो जाते हैं । विवेकको सर्वथा महत्त्व देनेसे वह विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है, फिर दूसरी सत्ताका अभाव होनेसे विकार रहनेका प्रश्‍न ही पैदा नहीं होता । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान होनेपर विकारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है ।

किसी प्रियजनकी मृत्यु हो जाय, धन चला जाय तो मनुष्यको शोक होता है । ऐसे ही भविष्यको लेकर चिन्ता होती है कि अगर स्‍त्री मर गयी तो क्या होगा ? पुत्र मर गया तो क्या होगा ? ये शोक-चिन्ता भी विवेकको महत्त्व न देनेके कारण ही होते हैं । संसारमें परिवर्तन होना, परिस्थिति बदलना आवश्यक है । यदि परिस्थिति नहीं बदलेगी तो संसार कैसे चलेगा ? मनुष्य बालकसे जवान कैसे बनेगा ? मूर्खसे विद्वान्‌ कैसे बनेगा ? रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा ? बीजका वृक्ष कैसे बनेगा ? परिवर्तनके बिना संसार स्थिर चित्रकी तरह बन जायगा ! वास्तवमें मरनेवाला (परिवर्तनशील) ही मरता है, रहनेवाला कभी मरता ही नहीं । यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि मृत्यु होनेपर शरीर तो हमारे सामने पड़ा रहता है, पर शरीरका मालिक (जीवात्मा) निकल जाता है । यदि इस अनुभवको महत्त्व दें तो फिर चिन्ता-शोक हो ही नहीं सकते । बालिके मरनेपर भगवान्‌ राम इसी अनुभवकी ओर ताराका लक्ष्य कराते हैं‒

तारा   बिकल    देखि    रधुराया ।

दीन्ह  ग्यान  हरि  लीन्ही  माया ॥

छिति  जल  पावक  गगन समीरा ।

पंच  रचित  अति  अधम  सरीरा ॥

प्रगट  सो  तनु  तव  आगें  सोवा ।

जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥

उपजा  ग्यान  चरन  तब  लागी ।

लीन्हेसि परम भगति बर मागी ॥

(मानस, किष्किन्धा ११ । २-३)