Listen हम शरीरमें अपनी स्थिति मान लेते हैं, अपनेको
शरीर मान लेते हैं तो यह हमारी गलती है । गलत बातका आदर करना और सही बातका निरादर करना
ही मुक्तिमें खास बाधा है । अपनेको शरीर मानकर ही हम कहते हैं कि मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ
। वास्तवमें हम न बालक हुए, न हम जवान हुए, न हम बूढ़े हुए, प्रत्युत शरीर ही बालक हुआ,
शरीर ही जवान हुआ, शरीर ही बूढ़ा हुआ । शरीर बीमार हो गया तो मैं बीमार हो गया,
शरीर कमजोर हो गया तो मैं कमजोर हो गया,
धन पासमें आ गया तो मैं धनी हो गया,
धन चला गया तो मैं निर्धन हो गया‒यह शरीर और धनके साथ एकता माननेसे
ही होता है । जब क्रोध आता है, तब हम कहते हैं कि मैं क्रोधी हूँ ! विचार करें,
क्या क्रोध सब समय रहता है ? सबके लिये होता है ? जो हरदम नहीं रहता और जो सबके लिये नहीं होता,
वह मेरेमें कैसे हुआ ? कुत्ता घरमें आ गया तो क्या वह घरका मालिक हो गया
? ऐसे
ही क्रोध आ गया तो क्या मैं क्रोधी हो गया ? क्रोध तो आता है और चला जाता है, पर
मैं निरन्तर रहता हूँ । देश बदलता है, काल बदलता है, वस्तुएँ बदलती हैं, व्यक्ति बदलते हैं, क्रिया बदलती है, अवस्था बदलती है, परिस्थिति बदलती है, घटना बदलती है, पर हम निरन्तर रहते हैं । जाग्रत्,
स्वप्न और सुषुप्ति‒यें तीनों अवस्थाएँ बदलती हैं, पर
हम तो एक ही रहते हैं, तभी हमें अवस्थाओंका और उनके परिवर्तनका अर्थात्
उनके आरम्भ और अन्तका ज्ञान होता है । स्थूल दृष्टिसे विचार करें तो जैसे हम हरिद्वारसे ऋषिकेश आये तो पहले हम हरिद्वारसे
रायवाला आये, फिर रायवालासे ऋषिकेश आये । अगर हम हरिद्वारमें ही रहनेवाले होते तो रायवाला और
ऋषिकेश कैसे आते ? रायवालामें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और ऋषिकेश कैसे आते ?
ऋषिकेशमें रहनेवाले होते तो हरिद्वार और रायवाला कैसे आते ?
अतः हम न तो हरिद्वारमें रहते हैं,
न रायवालामें रहते हैं, न ऋषिकेशमें रहते हैं । हरिद्वार,
रायवाला और ऋषिकेश‒तीनों अलग-अलग हैं,
पर हम एक ही हैं । हरिद्वारमें भी हम वही रहे,
रायवालामें भी हम वही रहे और ऋषिकेशमें भी हम वही रहे । ऐसे
ही जाग्रत्में भी हम वही रहे, स्वप्नमें भी हम वही रहे और सुषुप्तिमें भी हम वही रहे । अतः
बदलनेवालेको न देखकर रहनेवालेको देखना है अर्थात् अपनेमें निर्लिप्तताका अनुभव करना
है‒‘रहता रूप सही कर राखो, बहता संग न बहीजे ।’ बदलनेवालेके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है‒यही अमरता
(मुक्ति) है । अमरता स्वतःसिद्ध और स्वाभाविक है,
करनी नहीं पड़ती । मृत्युके साथ सम्बन्ध तो हमने माना
है । प्रश्न‒अभी सिंह सामने आ जाय तो भय लगेगा ही
? उत्तर‒भय इस कारण लगेगा कि ‘मैं शरीरसे अलग हूँ’‒यह बात सुनकर सीख
ली है,
समझी नहीं है । सीखी हुई और समझी हुई
बातमें यही फर्क है । तोता अन्य समय तो राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करता है,
पर जब बिल्ली पकड़ती है, तब टें-टें करता है, जबकि समय तो अब राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण करनेका है ! परन्तु सीखा हुआ ज्ञान समयपर काम नहीं आता । सिंह आ जाय तो उससे बचनेकी चेष्टा करनेमें कोई दोष नहीं है,
पर भयभीत होना दोषी है । कारण
कि मरनेवाला तो मर ही रहा है और जीनेवाला जी ही रहा है,
फिर भय किस बातका ? सिंह मारेगा तो मरनेवालेको ही मारेगा,
जीनेवालेको कैसे मारेगा ? सिंह खा लेगा तो उसकी भूख मिट जायगी, अपनेमें क्या फर्क पड़ेगा
?
मरनेवालेको कबतक बचाओगे ? वह तो मरेगा ही । अतः न जीनेकी इच्छा
करनी है, न मरनेका भय करना है । एक मार्मिक बात है । सत्संग करनेसे पहले जितना भय लगता है,
उतना भय सत्संगके बाद नहीं लगता । सत्संग
करनेसे वृत्तियोंमें बहुत फर्क पड़ता है और विकार अपने-आप नष्ट होते हैं । परन्तु ऐसा
तब होगा, जब हम सत्संगकी बातोंको आदर देंगे, महत्त्व
देंगे, उनका
अनुभव करेंगे । सत्संगकी बातोंको
महत्त्व देनेसे साधकके अनुभवमें ये तीन बातें अवश्य आती हैं‒ (१) काम-क्रोधादि विकार पहले जितनी तेजीसे आते थे,
उतनी तेजीसे अब
नहीं आते । (२) पहले जितनी देर ठहरते थे,
उतनी देर अब नहीं
ठहरते । (३) पहले जितनी जल्दी आते थे,
उतनी जल्दी अब
नहीं आते । ‒इन
बातोंको देखकर साधकका उत्साह बढ़ना चाहिये कि जो विकार कम होता है, वह
नष्ट भी अवश्य होता है । व्यापारमें तो लाभ और नुकसान दोनों होते हैं, पर
सत्संगमें लाभ-ही-लाभ होता है, नुकसान होता ही नहीं । जैसे माँकी गोदीमें पड़ा हुआ बालक अपने-आप बड़ा होता है,
बड़ा होनेके लिये उसको उद्योग नहीं करना पड़ता । ऐसे ही सत्संगमें
पड़े रहनेसे मनुष्यका अपने-आप विकास होता है । अगर जिज्ञासा
जोरदार हो और थोड़ा भी विकार असह्य हो तो तत्काल सिद्धि होती है । सत्संगसे विवेक जाग्रत् होता है । साधक जितने अंशमें उस विवेकको
महत्त्व देता है, उतने अंशमें उसके काम-क्रोधादि विकार कम हो जाते हैं । विवेकको
सर्वथा महत्त्व देनेसे वह विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है,
फिर दूसरी सत्ताका अभाव होनेसे विकार रहनेका प्रश्न ही पैदा
नहीं होता । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान होनेपर विकारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है
। किसी प्रियजनकी मृत्यु हो जाय,
धन चला जाय तो मनुष्यको शोक होता है । ऐसे ही भविष्यको लेकर
चिन्ता होती है कि अगर स्त्री मर गयी तो क्या होगा ?
पुत्र मर गया तो क्या होगा ? ये शोक-चिन्ता भी विवेकको महत्त्व न देनेके कारण
ही होते हैं । संसारमें परिवर्तन होना,
परिस्थिति बदलना आवश्यक है । यदि परिस्थिति नहीं
बदलेगी तो संसार कैसे चलेगा ? मनुष्य बालकसे जवान कैसे बनेगा ? मूर्खसे विद्वान् कैसे बनेगा ?
रोगीसे नीरोग कैसे बनेगा ? बीजका वृक्ष कैसे बनेगा ? परिवर्तनके बिना संसार स्थिर चित्रकी तरह बन जायगा ! वास्तवमें
मरनेवाला (परिवर्तनशील) ही मरता है, रहनेवाला कभी मरता ही नहीं । यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि
मृत्यु होनेपर शरीर तो हमारे सामने पड़ा रहता है, पर शरीरका मालिक (जीवात्मा) निकल जाता है । यदि इस अनुभवको महत्त्व
दें तो फिर चिन्ता-शोक हो ही नहीं सकते । बालिके मरनेपर भगवान् राम इसी अनुभवकी ओर
ताराका लक्ष्य कराते हैं‒ तारा
बिकल देखि रधुराया । दीन्ह
ग्यान हरि लीन्ही माया
॥ छिति
जल पावक गगन
समीरा । पंच
रचित अति अधम
सरीरा ॥ प्रगट
सो तनु तव आगें सोवा । जीव
नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥ उपजा
ग्यान चरन तब लागी । लीन्हेसि
परम भगति बर मागी ॥ (मानस, किष्किन्धा॰ ११ । २-३) |