Listen सम्बन्ध‒सत्-तत्त्वको लेकर शोक करना अनुचित क्यों है‒इस शंकाके समाधानके लिये आगेके दो श्लोक कहते हैं । सूक्ष्म विषय‒१२-१३ श्लोक‒शरीरीकी
नित्यताका वर्णन । न त्वेवाहं
जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न
चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥ १२ ॥ अर्थ‒किसी कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं
थे,
यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्यमें मैं, तू और राजालोग‒) हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है ।
व्याख्या‒[ मात्र संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं‒शरीरी (सत्) और शरीर (असत्) । ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात्
शोक न शरीरी (शरीरमें रहनेवाले)-को लेकर हो सकता है और न शरीरको लेकर ही हो सकता है
। कारण कि शरीरीका कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं । इन दोनोंके
लिये पूर्वश्लोकमें जो ‘अशोच्यान्’ पद आया है, उसकी व्याख्या अब शरीरीकी नित्यता और शरीरकी अनित्यताके रूपमें
करते हैं । ] ‘न त्वेवाहं
जातु........जनाधिपाः’‒लोगोंकी दृष्टिसे मैंने जबतक अवतार नहीं लिया था,
तबतक मैं इस रूपसे (कृष्णरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था और
तेरा जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक तू भी इस रूपसे (अर्जुनरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था
तथा इन राजाओंका भी जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक ये भी इस रूपसे (राजारूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं थे ।
परन्तु मैं, तू और ये राजालोग इस रूपसे प्रकट न होनेपर भी पहले नहीं थे‒ऐसी बात नहीं है । यहाँ ‘मैं, तू और ये राजालोग पहले थे’‒ऐसा कहनेसे ही काम चल सकता था,
पर ऐसा न कहकर ‘मैं, तू और ये राजालोग पहले नहीं थे,
ऐसी बात नहीं’‒ऐसा कहा गया है । इसका कारण यह है कि ‘पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं’ ऐसा कहनेसे ‘पहले हम सब जरूर थे’‒यह बात दृढ़ हो जाती है । तात्पर्य यह हुआ कि नित्य-तत्त्व सदा
ही नित्य है । इसका कभी अभाव था ही नहीं । ‘जातु’
कहनेका तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमानकालमें तथा किसी भी देश,
परिस्थिति, अवस्था, घटना, वस्तु आदिमें नित्यतत्त्वका किंचिन्मात्र भी अभाव नहीं हो सकता
। यहाँ ‘अहम्’
पद देकर भगवान्ने एक विलक्षण बात कही है । आगे चौथे अध्यायके
पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि ‘मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हुए हैं,
पर उनको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता’ । इस प्रकार भगवान्ने अपना ईश्वरपना प्रकट करके जीवोंसे अपनेको
अलग बताया है । परन्तु यहाँ भगवान् जीवोंके साथ अपनी एकता बता रहे हैं । इसका तात्पर्य
है कि वहाँ (चौथे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें) भगवान्का आशय अपनी महत्ता,
विशेषता प्रकट करनेमें है और यहाँ भगवान्का आशय तात्त्विक दृष्टिसे
नित्य-तत्त्वको जनानेमें है । ‘न चैव.....वयमतः
परम्’‒भविष्यमें शरीरोंकी ये अवस्थाएँ नहीं रहेंगी और एक दिन ये शरीर
भी नहीं रहेंगे; परन्तु ऐसी अवस्थामें भी हम सब नहीं रहेंगे‒यह बात नहीं है अर्थात् हम सब जरूर रहेंगे । कारण कि नित्य-तत्त्वका
कभी अभाव था नहीं और होगा भी नहीं । मैं, तू और राजालोग‒हम सभी पहले नहीं थे, यह बात भी नहीं है और आगे नहीं रहेंगे,
यह बात भी नहीं है‒इस प्रकार भूत और भविष्यकी बात तो भगवान्ने कह दी,
पर वर्तमानकी बात भगवान्ने नहीं कही । इसका कारण यह है कि शरीरोंकी
दृष्टिसे तो हम सब वर्तमानमें प्रत्यक्ष ही हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं है । इसलिये
‘हम सब अभी नहीं हैं, यह बात नहीं है’‒ऐसा कहनेकी जरूरत नहीं है । अगर तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय,
तो हम सभी वर्तमानमें हैं और ये शरीर प्रतिक्षण बदल रहे हैं‒इस तरह शरीरोंसे अलगावका अनुभव हमें वर्तमानमें ही कर लेना चाहिये
। तात्पर्य है कि जैसे भूत और भविष्यमें अपनी सत्ताका अभाव नहीं है,
ऐसे ही वर्तमानमें भी अपनी सत्ताका अभाव नहीं है‒इसका अनुभव करना चाहिये । जैसे प्रत्येक प्राणीको नींद आनेसे पहले भी यह अनुभव रहता है
कि ‘अभी हम हैं’ और नींद खुलनेपर भी यह अनुभव रहता है कि ‘अभी हम हैं’ तो नींदकी अवस्थामें भी हम वैसे-के-वैसे ही थे । केवल बाह्य
जाननेकी सामग्रीका अभाव था, हमारा अभाव नहीं था । ऐसे ही मैं,
तू और राजालोग‒हम सबके शरीर पहले भी नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे तथा
अभी भी शरीर प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहे हैं; परन्तु हमारी सत्ता पहले भी थी,
पीछे भी रहेगी और अभी भी वैसी-की-वैसी ही है । हमारी सत्ता कालातीत तत्त्व है;
क्योंकि हम उस कालके भी ज्ञाता हैं अर्थात् भूत,
भविष्य और वर्तमान‒ये तीनों काल हमारे जाननेमें आते हैं । उस कालातीत तत्त्वको
समझानेके लिये ही भगवान्ने यह श्लोक कहा है । विशेष बात मैं, तू और राजालोग पहले नहीं थे‒यह बात नहीं और आगे नहीं रहेंगे‒यह बात भी नहीं, ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि जब ये शरीर नहीं थे,
तब भी हम सब थे और जब ये शरीर नहीं रहेंगे,
तब भी हम रहेंगे अर्थात् ये सब शरीर तो हैं नाशवान् और हम सब
हैं अविनाशी । ये शरीर पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे‒इससे शरीरोंकी अनित्यता सिद्ध हुई और हम सब पहले थे और आगे रहेंगे‒इससे सबके स्वरूपकी नित्यता सिद्ध हुई । इन दो बातोंसे यह एक
सिद्धान्त सिद्ध होता है कि जो आदि और अन्तमें रहता है, वह
मध्यमें भी रहता है तथा जो आदि और अन्तमें नहीं रहता, वह मध्यमें भी नहीं रहता । जो आदि और अन्तमें नहीं रहता, वह मध्यमें कैसे नहीं रहता; क्योंकि वह तो हमें दीखता है ? इसका उत्तर यह है कि जिस दृष्टिसे अर्थात् जिन मन,
बुद्धि और इन्द्रियोंसे दृश्यका अनुभव हो रहा है,
उन मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित वह दृश्य प्रतिक्षण बदल रहा है
। वे एक क्षण भी स्थायी नहीं हैं । ऐसा होनेपर भी जब स्वयं दृश्यके साथ तादात्म्य कर
लेता है,
तब वह द्रष्टा अर्थात् देखनेवाला बन जाता है । जब देखनेके साधन
(मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ) और दृश्य (मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके विषय)‒ये सभी एक क्षण भी स्थायी नहीं हैं,
तो देखनेवाला स्थायी कैसे सिद्ध होगा
? तात्पर्य है कि देखनेवालेकी
संज्ञा तो दृश्य और दर्शनके सम्बन्धसे ही है । दृश्य और दर्शनसे सम्बन्ध न हो तो देखनेवालेकी
कोई संज्ञा नहीं होती, प्रत्युत उसका आधाररूप जो नित्य-तत्त्व है,
वही रह जाता है । उस नित्य-तत्त्वको हम सबकी उत्पत्ति,
स्थिति और प्रलयका आधार और सम्पूर्ण प्रतीतियोंका प्रकाशक कह
सकते हैं । परन्तु ये आधार और प्रकाशक नाम भी आधेय और प्रकाश्यके सम्बन्धसे ही हैं
। आधेय और प्रकाश्यके न रहनेपर भी उसकी सत्ता ज्यों-की-त्यों ही है । उस सत्य-तत्त्वकी
तरफ जिसकी दृष्टि है, उसको शोक कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । इसी दृष्टिसे मैं,
तू और राजालोग स्वरूपसे अशोच्य हैं । परिशिष्ट भाव‒इस श्लोकमें परमात्मा और जीवात्माके साधर्म्यका वर्णन है ।
भगवान् कहते हैं कि मैं कृष्णरूपसे, तू अर्जुनरूपसे तथा सब लोग राजारूपसे पहले भी नहीं थे और आगे
भी नहीं रहेंगे, पर सत्तारूपसे हम सब पहले भी थे और आगे भी रहेंगे । तात्पर्य है कि मैं,
तू तथा राजालोग‒ये तीनों शरीरको लेकर तो अलग-अलग हैं,
पर सत्ताको लेकर एक ही हैं । शरीर तो पहले भी नहीं थे और बादमें
भी नहीं रहेंगे, पर स्वरूप (स्वयं)-की सत्ता पहले भी थी, बादमें भी रहेगी और वर्तमानमें है ही । जब ये शरीर नहीं थे,
तब भी सत्ता थी और जब ये शरीर नहीं रहेंगे,
तब भी सत्ता रहेगी । एक सत्ताके सिवाय कुछ नहीं है । मैं, तू तथा ये राजालोग‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि परमात्माकी सत्ता और जीवकी सत्ता
एक ही है अर्थात् ‘है’ और ‘हूँ’‒दोनोंमें एक ही चिन्मय सत्ता है । ‘मैं’
(अहम्) के सम्बन्धसे ही ‘हूँ’ है । अगर ‘मैं’
(अहम्) का सम्बन्ध न रहे तो
‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ ही रहेगा । वह ‘है’ अर्थात् चिन्मय सत्तामात्र ही हमारा स्वरूप है,
शरीर हमारा स्वरूप नहीं है । इसलिये शरीरको लेकर शोक नहीं करना
चाहिये । भूतकाल और भविष्यकालकी घटना जितनी दूर दीखती है,
उतनी ही दूर वर्तमान भी है । जैसे भूत और भविष्यसे हमारा सम्बन्ध
नहीं है,
ऐसे ही वर्तमानसे भी हमारा सम्बन्ध नहीं है । जब सम्बन्ध ही
नहीं है,
तो फिर भूत, भविष्य और वर्तमानमें क्या फर्क हुआ
? ये तीनों कालके अन्तर्गत हैं,
जबकि हमारा स्वरूप कालसे अतीत है । कालका तो खण्ड होता है,
पर स्वरूप (सत्ता) अखण्ड है । शरीरको अपना स्वरूप माननेसे ही
भूत,
भविष्य और वर्तमानमें फर्क दीखता है । वास्तवमें भूत,
भविष्य और वर्तमान विद्यमान है ही नहीं ! अनेक युग बदल जायँ तो भी शरीरी बदलता नहीं,
वह-का-वह ही रहता है; क्योंकि वह परमात्माका अंश है । परन्तु शरीर बदलता ही रहता है,
क्षणमात्र भी वह नहीं रहता ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒मनुष्यमात्रको ‘मैं हूँ’‒इस रूपमें
अपनी एक सत्ताका अनुभव होता है । इस सत्तामें अहम् (‘मैं’) मिला हुआ होनेसे ही ‘हूँ’ के रूपमें
अपनी अलग एकदशीय सत्ता अनुभवमें आती है । यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूपमें एक सर्वदेशीय
सत्ता ही अनुभवमें आयेगी । वह सर्वदेशीय सत्ता ही प्राणिमात्रका वास्तविक स्वरूप है
। उस सत्तामें जड़ताका मिश्रण नहीं हैं अर्थात् उसमें मैं, तू, यह और वह‒ये चारों ही नहीं हैं
। सार बात यह है कि एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं
है । രരരരരരരരരര |