Listen परिशिष्ट भाव‒एक विभाग शरीरका है और एक विभाग शरीरी (शरीरवाले)-का है । दोनों
एक-दूसरेसे सर्वथा सम्बन्धरहित हैं । दोनोंका स्वभाव ही अलग-अलग है । एक जड़ है,
एक चेतन । एक नाशवान् है, एक अविनाशी, एक विकारी है, एक निर्विकार । एकमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता है और एक अनन्तकालतक
ज्यों-का-त्यों ही रहता है‒‘भूतग्रामः स एवायम्’ (गीता ८ । १९), ‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ (गीता १४ । २) । शरीर और शरीरी‒दोनों ही अशोच्य हैं । शरीरका निरन्तर विनाश होता है;
अतः उसके लिये शोक करना नहीं बनता और शरीरीका विनाश कभी होता
ही नहीं;
अतः उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता । शोक केवल मूर्खतासे होता
है । शरीरकी निरन्तर सहजनिवृत्ति है और शरीरी निरन्तर सबको प्राप्त है । शरीर और शरीरीके
इस विभागको जाननेवाले विवेकी मनुष्य मृत अथवा जीवित, किसी भी प्राणीके लिये कभी शोक नहीं करते । उनकी दृष्टिमें
बदलनेवाले शरीरका विभाग ही अलग है और न बदलनेवाले शरीरी अर्थात् स्वरूपकी सत्ताका विभाग
ही अलग है । गीताका उपदेश शरीर और शरीरीके भेदसे आरम्भ होता है । दूसरे दार्शनिक
ग्रन्थ तो आत्मा और अनात्माका इदंतासे वर्णन करते हैं,
पर गीता इदंतासे आत्मा-अनात्माका वर्णन न करके सबके अनुभवके
अनुसार देह-देही, शरीर-शरीरीका वर्णन करती है । यह गीताकी विलक्षणता है ! साधक
अपना कल्याण चाहता है तो उसके लिये सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि ‘मैं कौन हूँ’ । अर्जुनने भी अपने कल्याणका उपाय पूछा है‒‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२ । ७) । देह और देहीका भेद स्वीकार करनेसे ही कल्याण हो सकता है । जबतक ‘मैं देह हूँ’‒यह भाव रहेगा, तबतक कितना ही उपदेश सुनते रहें,
सुनाते रहें और साधन भी करते रहें,
कल्याण नहीं होगा । जो वस्तु अपनी न हो, उसको
अपना मान लेना और जो वस्तु वास्तवमें अपनी हो, उसको अपना न मानना बहुत बड़ी भूल है । अपनी वस्तु
वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें । शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा निरन्तर हमारे
साथ रहते हैं । कारण कि शरीरकी सजातीयता संसारके साथ है और हमारी अर्थात् शरीरीकी सजातीयता
परमात्माके साथ है । इसलिये शरीरको अपना मानना और परमात्माको
अपना न मानना सबसे बड़ी भूल है । इस भूलको मिटानेके लिये भगवान् गीतामें सबसे
पहले शरीर-शरीरीके भेदका वर्णन करते हैं और साधकको उद्बोधन करते हैं कि जिसकी मृत्यु होती है,
वह तुम नहीं हो अर्थात् तुम शरीर नहीं हो । तुम ज्ञाता (जाननेवाले) हो, शरीर ज्ञेय (जाननेमें आनेवाला) है । (गीता‒तेरहवें अध्यायका पहला श्लोक) तुम सर्वदेशीय हो‒‘नित्यः सर्वगतः’ (गीता २ । २४), ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (गीता २ । १७),
शरीर एकदेशीय है । तुम चिन्मय लोकके निवासी हो,
शरीर जड़ संसारका निवासी है । तुम मुझ परमात्माके अंश हो‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता
१५ । ७), शरीर प्रकृतिका अंश है‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५ । ७) । तुम निरन्तर अमरतामें रहते हो,
शरीर निरन्तर मृत्युमें रहता है । शरीरकी क्षतिसे तुम्हारी किंचिन्मात्र
भी क्षति नहीं होती । अतः शरीरको लेकर तुम्हें शोक, चिन्ता, भय आदि नहीं होने चाहिये । शरीरी किसी शरीरसे लिप्त नहीं है,
इसलिये उसको सर्वव्यापी कहा गया है‒‘सर्वगतः’ (गीता २ । २४), ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (२ । १७) । तात्पर्य हुआ कि साधकका स्वरूप सत्तामात्र है; अतः वास्तवमें वह शरीरी (शरीरवाला) नहीं है,
प्रत्युत अशरीरी है । इसलिये भगवान्ने उसको अव्यक्त भी कहा
है‒‘अव्यक्तः’ (२ । २५), ‘अव्यक्तादीनि भूतानि’ (२ । २८) । शरीर प्रतिक्षण नष्ट होनेवाला और असत् है । असत्की सत्ता विद्यमान नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावः’ (२ । १६) । जिसकी सत्ता विद्यमान नहीं है, ऐसे असत् शरीरको लेकर साधक शरीरी (शरीरवाला) कैसे हो सकता है
? इसलिये साधक शरीर भी नहीं है और शरीरी भी नहीं है । परन्तु इस प्रकरणमें
भगवान्ने साधकोंको समझानेकी दृष्टिसे उस सत्तामात्र स्वरूपको ‘शरीरी’ (देही) नामसे कहा है । ‘शरीरी’ कहनेका
तात्पर्य यही बताना है कि तुम शरीर नहीं हो । जिस समय हम शरीर और शरीरीका विचार करते हैं,
उस समय भी शरीर और शरीरी वैसे ही हैं और जिस समय विचार नहीं
करते,
उस समय भी वे वैसे ही हैं । विचार करनेसे वस्तुस्थितिमें तो
कोई फर्क नहीं पड़ता, पर साधकका मोह मिट जाता है, उसका मनुष्यजन्म सफल हो जाता है । मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है । अतः ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒यह विवेक मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है । शरीरको मैं-मेरा मानना
मनुष्यबुद्धि नहीं है, प्रत्युत पशुबुद्धि है । इसलिये श्रीशुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित्से
कहते हैं‒ त्वं
तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि । न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥ (श्रीमद्भा॰ १२ । ५ । २) ‘हे राजन् ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा । जैसे शरीर पहले नहीं
था, पीछे पैदा हुआ और फिर मर जायगा, ऐसे तुम पहले नहीं थे, पीछे पैदा हुए और फिर मर जाओगे‒यह बात नहीं है ।’ गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒इस श्लोकसे भगवान् शरीर और शरीरी (स्वयं)-के
विवेकका उपदेश आरम्भ करते हैं, जो प्रत्येक मार्गके साधकके लिये अत्यन्त आवश्यक है ।
शरीर सदा मृत्युमें रहता है और शरीरी सदा अमरतामें रहता है, इसलिये दोनोंके लिये ही
शोक करनेका कोई औचित्य नहीं है‒यह इस सम्पूर्ण उपदेशका सार है ।
यहाँ एक बात विशेष ध्यान देनेकी है
कि भगवान्ने इस प्रकरणमें चिन्मय सत्तारूप अपने अंश (आत्मा)-को
ही सामान्य लोगोंको समझानेकी दृष्टिसे ‘शरीरी’ तथा ‘देही’ नामोंसे कहा है । वास्तवमें
शरीरीका शरीरसे सम्बन्ध है ही नहीं, हो सकता ही नहीं, असम्भव है । രരരരരരരരരര |