।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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प्रधान विषय११३० श्‍लोकतक‒सांख्ययोगका वर्णन ।

सम्बन्धशोकाविष्‍ट अर्जुनको शोक-निवृत्तिका उपदेश देनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयभगवान्‌द्वारा शोकका अनौचित्य बताना ।

श्रीभगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्‍च भाषसे ।

         गतासूनगतासूंश्‍च  नानुशोचन्ति  पण्डिताः ॥ ११ ॥

अर्थ‒श्रीभगवान् बोलेतुमने शोक न करनेयोग्यका शोक किया है और विद्वत्ता (पण्डिताई)-की बातें कह रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डितलोग शोक नहीं करते ।

त्वम् = तुमने

गतासून् = जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये

अशोच्यान् = शोक न करने योग्यका

च = और

अन्वशोचः = शोक किया है

अगतासून् = जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये

च = और

पण्डिताः = पण्डितलोग

प्रज्ञावादान् = विद्वत्ता (पण्डिताई)-की बातें

, अनुशोचन्ति = शोक नहीं करते ।

भाषसे = कह रहे हो; (परन्तु)

 

व्याख्या[ मनुष्यको शोक तब होता है, जब वह संसारके प्राणी-पदार्थोंमें दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं; ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं; ये हमारे वर्णके हैं और ये हमारे वर्णके नहीं हैं; ये हमारे आश्रमके हैं और ये हमारे आश्रमके नहीं हैं; ये हमारे पक्षके हैं और ये हमारे पक्षके नहीं हैं । जो हमारे होते हैं, उनमें ममता, कामना, प्रियता, आसक्ति हो जाती है । इन ममता, कामना आदिसे ही शोक, चिन्ता, भय, उद्वेग, हलचल, संताप आदि दोष पैदा होते हैं । ऐसा कोई भी दोष, अनर्थ नहीं है, जो ममता, कामना आदिसे पैदा न होता होयह सिद्धान्त है ।

गीतामें सबसे पहले धृतराष्‍ट्रने कहा कि मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने युद्धभूमिमें क्या किया ? यद्यपि पाण्डव धृतराष्‍ट्रको अपने पितासे भी अधिक आदर-दृष्‍टिसे देखते थे, तथापि धृतराष्‍ट्रके मनमें अपने पुत्रोंके प्रति ममता थी । अतः उनका अपने पुत्रोंमें और पाण्डवोंमें भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं ।

जो ममता धृतराष्‍ट्रमें थी, वही ममता अर्जुनमें भी पैदा हुई । परन्तु अर्जुनकी वह ममता धृतराष्‍ट्रकी ममताके समान नहीं थी । अर्जुनमें धृतराष्‍ट्रकी तरह पक्षपात नहीं था; अतः वे सभीको स्वजन कहते हैंदृष्ट्वेमं स्वजनम् (१ । २८), और दुर्योधन आदिको भी स्वजन कहते हैंस्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव (१ । ३७) । तात्पर्य है कि अर्जुनकी सम्पूर्ण कुरुवंशियोंमें ममता थी और उस ममताके कारण ही उनके मरनेकी आशंकासे अर्जुनको शोक हो रहा था । इस शोकको मिटानेके लिये भगवान्‌ने अर्जुनको गीताका उपदेश दिया है, जो इस ग्यारहवें श्‍लोकसे आरम्भ होता है । इसके अन्तमें भगवान् इसी शोकको अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत करमा शुचः’ (१८ । ६६) । कारण कि संसारका आश्रय लेनेसे ही शोक होता है और अनन्यभावसे मेरा आश्रय लेनेसे तेरे शोक, चिन्ता आदि सब मिट जायँगे । ]

अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्संसारमात्रमें दो चीजें हैंसत् और असत्, शरीरी और शरीर । इन दोनोंमें शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है । ये दोनों ही अशोच्य हैं । अविनाशीका कभी विनाश नहीं होता, इसलिये उसके लिये शोक करना बनता ही नहीं और विनाशीका विनाश होता ही है, वह एक क्षण भी स्थायीरूपसे नहीं रहता, इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता । तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरीको लेकर बन सकता है और न शरीरोंको लेकर ही बन सकता है । शोकके होनेमें तो केवल अविवेक (मूर्खता) ही कारण है ।

मनुष्यके सामने जन्मना-मरना, लाभ-हानि आदिके रूपमें जो कुछ परिस्थिति आती है, वह प्रारब्धका अर्थात् अपने किये हुए कर्मोंका ही फल है । उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता ही है । कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये, चाहे प्रतिकूल आये, उसका आरम्भ और अन्त होता है अर्थात् वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अन्तमें भी नहीं रहेगी । जो परिस्थिति आदिमें और अन्तमें नहीं होती, वह बीचमें एक क्षण भी स्थायी नहीं होती । अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे ? और मिटती है तो स्थायी कैसे ? ऐसी प्रतिक्षण मिटनेवाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर हर्ष-शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है ।

प्रज्ञावादांश्‍च भाषसेएक तरफ तो तू पण्डिताईकी बातें बघार रहा है और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है । अतः तू केवल बातें ही बनाता है । वास्तवमें तू पण्डित नहीं है; क्योंकि जो पण्डित होते हैं, वे किसीके लिये भी कभी शोक नहीं करते ।

कुलका नाश होनेसे कुल-धर्म नष्‍ट हो जायगा । धर्मके नष्‍ट होनेसे स्‍त्रियाँ दूषित हो जायँगी, जिससे वर्णसंकर पैदा होगा । वह वर्णसंकर कुलघातियोंको और उनके कुलको नरकोंमें ले जानेवाला होगा । पिण्ड और पानी न मिलनेसे उनके पितरोंका भी पतन हो जायगाऐसी तेरी पण्डिताईकी बातोंसे भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और शरीरी अविनाशी है । अगर शरीरी स्वयं अविनाशी न होता, तो कुलघाती और कुलके नरकोंमें जानेका भय नहीं होता, पितरोंका पतन होनेकी चिन्ता नहीं होती । अगर तुझे कुलकी और पितरोंकी चिन्ता होती है, उनका पतन होनेका भय होता है, तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और उसमें रहनेवाला शरीरी नित्य है । अतः शरीरोंके नाशको लेकर तेरा शोक करना अनुचित है ।

गतासूनगतासूंश्‍चसबके पिण्ड-प्राणका वियोग अवश्यम्भावी है । उनमेंसे किसीके पिण्ड-प्राणका वियोग हो गया है और किसीका होनेवाला है । अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये । तुमने जो शोक किया है, यह तुम्हारी गलती है ।

जो मर गये हैं, उनके लिये शोक करना तो महान् गलती है । कारण कि मरे हुए प्राणियोंके लिये शोक करनेसे उन प्राणियोंको दुःख भोगना पड़ता है । जैसे मृतात्माके लिये जो पिण्ड और जल दिया जाता है, वह उसको परलोकमें मिल जाता है, ऐसे ही मृतात्माके लिये जो कफ और आँसू बहाते हैं, वे मृतात्माको परवश होकर खाने-पीने पड़ते हैं

१.   () श्‍लेष्माश्रु  बान्धवैर्मुक्तं  प्रेतो  भुङ्क्ते  यतोऽवशः ।

          तस्मान्‍न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याश्‍च शक्तितः ॥

                                                  (पंचतन्त्र, मित्रभेद ३६५)

मृतात्माको अपने बन्धु-बन्धवोंके द्वारा त्यक्त कफयुक्त आँसुओंको विवश होकर खाना-पीना पड़ता है । इसलिये रोना नहीं चाहिये, प्रत्युत अपनी शक्तिके अनुसार मृतात्माकी और्ध्वदैहिक क्रिया करनी चाहिये ।

() मृतानां बान्धवा ये  तु मुञ्‍चन्त्यश्रूणि भूतले ।

       पिबन्त्यश्रूणि तान्यद्धा मृताः प्रेताः परत्र वै ॥

    (स्कन्दपुराण, ब्राह्म सेतु ४८ । ४२)

मृतात्माके बन्धु-बान्धव भूतलपर जिन आँसुओंका त्याग करते हैं, उन आँसुओंको मृतात्मा परलोकमें पीते हैं ।

जो अभी जी रहे हैं, उनके लिये भी शोक नहीं करना चाहिये । उनका तो पालन-पोषण करना चाहिये, प्रबन्ध करना चाहिये । उनकी क्या दशा होगी ! उनका भरण-पोषण कैसे होगा ! उनकी सहायता कौन करेगा ! आदि चिन्ता-शोक कभी नहीं करने चाहिये; क्योंकि चिन्ता-शोक करनेसे कोई लाभ नहीं है ।

मेरे शरीरके अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है आदि विकारोंके पैदा होनेमें मूल कारण हैशरीरके साथ एकता मानना । कारण कि शरीरके साथ एकता माननेसे ही शरीरका पालन-पोषण करनेवालोंके साथ अपनापन हो जाता है, और उस अपनेपनके कारण ही कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे अर्जुनके मनमें चिन्ता-शोक हो रहे हैं, तथा चिन्ता-शोकसे ही अर्जुनके शरीरमें उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं । इसमें भगवान्‌ने गतासून् और अगतासून् के शोकको ही हेतु बताया है । जिनके प्राण चले गये हैं, वे गतासून् हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, वे अगतासून् हैं । पिण्ड और जल न मिलनेसे पितरोंका पतन हो जाता है (पहले अध्यायका बयालीसवाँ श्‍लोक)यह अर्जुनकी गतासून् की चिन्ता है और जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं (पहले अध्यायका तैंतीसवाँ श्‍लोक)यह अर्जुनकी अगतासून् की चिन्ता है । ये दोनों चिन्ताएँ शरीरको लेकर ही हो रही हैं; अतः ये दोनों चिन्ताएँ धातुरूपसे एक ही हैं । कारण कि गतासून् और अगतासून् दोनों ही नाशवान् हैं ।

गतासून् और अगतासून्इन दोनोंके लिये कर्तव्य-कर्म करना चिन्ताकी बात नहीं है । गतासून् के लिये पिण्ड-पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करनायह कर्तव्य है और अगतासून् के लिये व्यवस्था कर देना, निर्वाहका प्रबन्ध कर देनायह कर्तव्य है । कर्तव्य चिन्ताका विषय नहीं होता, प्रत्युत विचारका विषय होता है । विचारसे कर्तव्यका बोध होता है और चिन्तासे विचार नष्‍ट होता है ।

नानुशोचन्ति पण्डिताःसत्-असत्-विवेकवती बुद्धिका नाम पण्डा है । वह पण्डाजिनकी विकसित हो गयी है अर्थात् जिनको सत्-असत्‌का स्पष्‍टतया विवेक हो गया है, वे पण्डित हैं । ऐसे पण्डितोंमें सत्-असत्‌को लेकर शोक नहीं होता; क्योंकि सत्‌को सत् माननेसे भी शोक नहीं होता और असत्‌को असत् माननेसे भी शोक नहीं होता । स्वयं सत्-स्वरूप है और बदलनेवाला शरीर असत्-स्वरूप है । असत्‌को सत् मान लेनेसे ही शोक होता है अर्थात् ये शरीर आदि ऐसे ही बने रहें, मरें नहींइस बातको लेकर ही शोक होता है । सत्‌को लेकर कभी चिन्ता-शोक होते ही नहीं ।

( परिशिष्‍ट भाव और गीता-प्रबोधनी व्याख्या कल करनेका विचार है । )

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