।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्धजब अर्जुनने युद्ध करनेके लिये साफ मना कर दिया, तब उसके बाद क्या हुआइसको संजय आगेके श्‍लोकमें बताते हैं ।

तमुवाच हृषीकेशः  प्रहसन्‍निव भारत ।

         सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥ १० ॥

अर्थ‒हे भरतवंशोद्भव धृतराष्‍ट्र ! दोनों सेनाओंके मध्यभागमें विषाद करते हुए उस अर्जुनके प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले ।

भारत = हे भरतवंशोद्भव धृतराष्‍ट्र !

प्रहसन्, इव = हँसते हुए-से

उभयोः = दोनों

हृषीकेशः = भगवान् हृषीकेश

सेनयोः = सेनाओंके

इदम् = यह (आगे कहे जानेवाले)

मध्ये = मध्यभागमें

वचः = वचन

विषीदन्तम् = विषाद करते हुए

उवाच = बोले ।

तम् = उस अर्जुनके प्रति

 

व्याख्यातमुवाच हृषीकेशः....विषीदन्तमिदं वचःअर्जुनने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान्‌से दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहा था । अब वहींपर अर्थात् दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुन विषादमग्‍न हो गये ! वास्तवमें होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्‌देश्यसे आये थे, उस उद्‌देश्यके अनुसार युद्धके लिये खड़े हो जाते । परन्तु उस उद्‌देश्यको छोड़कर अर्जुन चिन्ता-शोकमें फँस गये । अतः अब दोनों सेनाओंके बीचमें ही भगवान् शोकमग्‍न अर्जुनको उपदेश देना आरम्भ करते हैं ।

प्रहसन्‍निव(विशेषतासे हँसते हुएकी तरह)-का तात्पर्य है कि अर्जुनके भाव बदलनेको देखकर अर्थात् पहले जो युद्ध करनेका भाव था, वह अब विषादमें बदल गयाइसको देखकर भगवान्‌को हँसी आ गयी । दूसरी बात, अर्जुनने पहले (दूसरे अध्यायके सातवें श्‍लोकमें) कहा था कि मैं आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये अर्थात् मैं युद्ध करूँ या न करूँ, मेरेको क्या करना चाहियेइसकी शिक्षा दीजिये; परन्तु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफसे ही निश्‍चय कर लिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा’‒यह देखकर भगवान्‌को हँसी आ गयी । कारण कि शरणागत होनेपर मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँआदि कुछ भी सोचनेका अधिकार नहीं रहता । उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे । अर्जुन भगवान्‌के शरण होनेके बाद मैं युद्ध नहीं करूँगाऐसा कहकर एक तरहसे शरणागत होनेसे हट गये । इस बातको लेकर भगवान्‌को हँसी आ गयी । इव का तात्पर्य है कि जोरसे हँसी आनेपर भी भगवान् मुसकराते हुए ही बोले ।

जब अर्जुनने यह कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगातब भगवान्‌को यहीं कह देना चाहिये था कि जैसी तेरी मर्जी आये, वैसा करयथेच्छसि तथा कुरु (१८ । ६३) । परन्तु भगवान्‌ने यही समझा कि मनुष्य जब चिन्ता-शोकसे विकल हो जाता है, तब वह अपने कर्तव्यका निर्णय न कर सकनेके कारण कभी कुछ, तो कभी कुछ बोल उठता है । यही दशा अर्जुनकी हो रही है । अतः भगवान्‌के हृदयमें अर्जुनके प्रति अत्यधिक स्‍नेह होनेके कारण कृपालुता उमड़ पड़ी । कारण कि भगवान् साधकके वचनोंकी तरफ ध्यान न देकर उसके भावकी तरफ ही देखते हैं । इसलिये भगवान् अर्जुनके मैं युद्ध नहीं करूँगाइस वचनकी तरफ ध्यान न देकर (आगेके श्‍लोकसे) उपदेश आरम्भ कर देते हैं ।

जो वचनमात्रसे भी भगवान्‌के शरण हो जाता है, भगवान् उसको स्वीकार कर लेते हैं । भगवान्‌के हृदयमें प्राणियोंके प्रति कितनी दयालुता है !

हृषीकेश कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं अर्थात् प्राणियोंके भीतरी भावोंको जाननेवाले हैं । भगवान् अर्जुनके भीतरी भावोंको जानते हैं कि अभी तो कौटुम्बिक मोहके वेगके कारण और राज्य मिलनेसे अपना शोक मिटता न दीखनेके कारण यह कह रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा; परन्तु जब इसको स्वयं चेत होगा, तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही यह करेगा ।

इदं वचः उवाच पदोंमें केवल उवाच कहनेसे ही काम चल सकता था; क्योंकि उवाच के अन्तर्गत ही वचः पदका अर्थ आ जाता है । अतः वचः पद देना पुनरुक्तिदोष दीखता है । परन्तु वास्तवमें यह पुनरुक्तिदोष नहीं है, प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है । अभी आगेके श्‍लोकसे भगवान् जिस रहस्यमय ज्ञानको प्रकट करके उसे सरलतासे, सुबोध भाषामें समझाते हुए बोलेंगे, उसकी तरफ लक्ष्य करनेके लिये यहाँ वचः पद दिया गया है ।

परिशिष्‍ट भावधर्मभूमि कुरुक्षेत्रके एक भागमें कौरव-सेना खड़ी है और दूसरे भागमें पाण्डव-सेना । दोनों सेनाओंके मध्यभागमें श्‍वेत घोड़ोंसे युक्त एक महान् रथ खड़ा है । उस रथके एक भागमें भगवान् श्रीकृष्ण बैठे हैं और एक भागमें अर्जुन ! अर्जुनके निमित्त मनुष्यमात्रका कल्याण करनेके लिये भगवान् अपना अलौकिक उपदेश आरम्भ करते हैं और सर्वप्रथम शरीर तथा शरीरीके विभागका वर्णन करते हैं ।

രരരരരരരരരര