Listen सम्बन्ध‒जब अर्जुनने युद्ध करनेके लिये साफ मना कर दिया,
तब उसके बाद क्या हुआ‒इसको संजय आगेके श्लोकमें बताते हैं । तमुवाच
हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये
विषीदन्तमिदं वचः ॥ १० ॥ अर्थ‒हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओंके मध्यभागमें विषाद
करते हुए उस अर्जुनके प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन
बोले ।
व्याख्या‒‘तमुवाच हृषीकेशः....विषीदन्तमिदं
वचः’‒अर्जुनने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओंको देखनेके
लिये भगवान्से दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहा था । अब वहींपर अर्थात्
दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुन विषादमग्न हो गये ! वास्तवमें होना यह चाहिये था कि
वे जिस उद्देश्यसे आये थे, उस उद्देश्यके अनुसार युद्धके लिये खड़े हो जाते । परन्तु उस
उद्देश्यको छोड़कर अर्जुन चिन्ता-शोकमें फँस गये । अतः अब दोनों सेनाओंके बीचमें ही
भगवान् शोकमग्न अर्जुनको उपदेश देना आरम्भ करते हैं । ‘प्रहसन्निव’‒(विशेषतासे हँसते हुएकी तरह)-का तात्पर्य है कि अर्जुनके भाव बदलनेको देखकर अर्थात् पहले जो
युद्ध करनेका भाव था, वह अब विषादमें बदल गया‒इसको देखकर भगवान्को हँसी आ गयी । दूसरी बात,
अर्जुनने पहले (दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें) कहा था कि
मैं आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये अर्थात् मैं युद्ध करूँ या न करूँ,
मेरेको क्या करना चाहिये‒इसकी शिक्षा दीजिये; परन्तु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफसे ही निश्चय कर लिया
कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’‒यह देखकर भगवान्को हँसी आ गयी । कारण कि शरणागत होनेपर ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’
आदि कुछ भी सोचनेका अधिकार नहीं रहता । उसको तो इतना ही अधिकार
रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे । अर्जुन भगवान्के शरण होनेके बाद ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’
ऐसा कहकर एक तरहसे शरणागत होनेसे हट गये । इस बातको लेकर भगवान्को
हँसी आ गयी । ‘इव’
का तात्पर्य है कि जोरसे हँसी आनेपर भी भगवान् मुसकराते हुए
ही बोले । जब अर्जुनने यह कह दिया कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’
तब भगवान्को यहीं कह देना चाहिये था कि जैसी तेरी मर्जी आये,
वैसा कर‒‘यथेच्छसि तथा कुरु’ (१८ । ६३) । परन्तु भगवान्ने यही समझा कि मनुष्य जब चिन्ता-शोकसे विकल हो
जाता है,
तब वह अपने कर्तव्यका निर्णय न कर सकनेके कारण कभी कुछ,
तो कभी कुछ बोल उठता है । यही दशा अर्जुनकी हो रही है । अतः
भगवान्के हृदयमें अर्जुनके प्रति अत्यधिक स्नेह होनेके कारण कृपालुता उमड़ पड़ी ।
कारण कि भगवान् साधकके वचनोंकी तरफ ध्यान न देकर उसके भावकी तरफ ही देखते हैं । इसलिये
भगवान् अर्जुनके ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’
इस वचनकी तरफ ध्यान न देकर (आगेके श्लोकसे) उपदेश आरम्भ कर
देते हैं । जो वचनमात्रसे भी भगवान्के शरण हो जाता है, भगवान्
उसको स्वीकार कर लेते हैं । भगवान्के हृदयमें प्राणियोंके प्रति कितनी दयालुता है
! ‘हृषीकेश’ कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं अर्थात् प्राणियोंके
भीतरी भावोंको जाननेवाले हैं । भगवान् अर्जुनके भीतरी भावोंको जानते हैं कि अभी तो
कौटुम्बिक मोहके वेगके कारण और राज्य मिलनेसे अपना शोक मिटता न दीखनेके कारण यह कह
रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’;
परन्तु जब इसको स्वयं चेत होगा,
तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा,
वैसा ही यह करेगा । ‘इदं
वचः उवाच’
पदोंमें केवल ‘उवाच’
कहनेसे ही काम चल सकता था; क्योंकि ‘उवाच’
के अन्तर्गत ही ‘वचः’
पदका अर्थ आ जाता है । अतः ‘वचः’
पद देना पुनरुक्तिदोष दीखता है । परन्तु वास्तवमें यह पुनरुक्तिदोष
नहीं है,
प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है । अभी आगेके श्लोकसे
भगवान् जिस रहस्यमय ज्ञानको प्रकट करके उसे सरलतासे, सुबोध भाषामें समझाते हुए बोलेंगे,
उसकी तरफ लक्ष्य करनेके लिये यहाँ ‘वचः’ पद दिया गया है ।
परिशिष्ट भाव‒धर्मभूमि कुरुक्षेत्रके एक भागमें कौरव-सेना खड़ी है और दूसरे
भागमें पाण्डव-सेना । दोनों सेनाओंके मध्यभागमें श्वेत घोड़ोंसे युक्त एक महान् रथ
खड़ा है । उस रथके एक भागमें भगवान् श्रीकृष्ण बैठे हैं और एक भागमें अर्जुन ! अर्जुनके
निमित्त मनुष्यमात्रका कल्याण करनेके लिये भगवान् अपना अलौकिक उपदेश आरम्भ करते हैं
और सर्वप्रथम शरीर तथा शरीरीके विभागका वर्णन करते हैं । രരരരരരരരരര |