Listen सम्बन्ध‒पूर्वश्लोकमें अर्जुन भगवान्के शरणागत तो हो
जाते हैं, पर उनके मनमें आता है कि भगवान्का तो युद्ध करानेका ही भाव
है,
पर मैं युद्ध करना अपने लिये धर्मयुक्त नहीं मानता हूँ । उन्होंने
जैसे पहले ‘उत्तिष्ठ’ कहकर युद्धके लिये आज्ञा दी, ऐसे ही वे अब भी युद्ध करनेकी आज्ञा दे देंगे । दूसरी बात,
शायद मैं अपने हृदयके भावोंको भगवान्के सामने पूरी तरह नहीं
रख पाया हूँ । इन बातोंको लेकर अर्जुन आगेके श्लोकमें युद्ध न करनेके पक्षमें अपने
हृदयकी अवस्थाका स्पष्टरूपसे वर्णन करते हैं । सूक्ष्म विषय‒अर्जुनद्वारा सांसारिक भोगोंसे
शोक-निवृत्तिका उपाय न देखना । न हि प्रपश्यामि
ममापनुद्या द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् । अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं
सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८ ॥ अर्थ‒कारण कि पृथ्वीपर धन-धान्य-समृद्ध और शत्रुरहित राज्य तथा (स्वर्गमें)
देवताओंका आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा जो शोक है,
वह दूर हो जाय‒ऐसा मैं नहीं देखता हूँ ।
व्याख्या‒[ अर्जुन सोचते हैं कि भगवान् ऐसा समझते होंगे कि अर्जुन युद्ध
करेगा तो उसकी विजय होगी और विजय होनेपर उसको राज्य मिल जायगा,
जिससे उसके चिन्ता-शोक मिट जायँगे और संतोष हो जायगा । परन्तु
शोकके कारण मेरी ऐसी दशा हो गयी है कि विजय होनेपर भी मेरा शोक दूर हो जाय‒ऐसी बात मैं नहीं देखता । ] ‘अवाप्य
भूमावसपत्नमृद्धं राज्यम्’‒अगर मेरेको धन-धान्यसे सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय
अर्थात् जिस राज्यमें प्रजा खूब सुखी हो, प्रजाके पास खूब धन-धान्य हो, किसी चीजकी कमी न हो और राज्यमें कोई वैरी भी न हो‒ऐसा राज्य मिल जाय, तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता । ‘सुराणामपि
चाधिपत्यम्’‒इस पृथ्वीके तुच्छ भोगोंवाले राज्यकी तो बात ही क्या,
इन्द्रका दिव्य भोगोंवाला राज्य भी मिल जाय,
तो भी मेरा शोक, जलन, चिन्ता दूर नहीं हो सकती । अर्जुनने पहले अध्यायमें यह बात कही थी कि मैं न विजय चाहता
हूँ,
न राज्य चाहता हूँ और न सुख ही चाहता हूँ;
क्योंकि उस राज्यसे क्या होगा ? उन भोगोंसे क्या होगा ? और उस जीनेसे क्या होगा ? जिनके लिये हम राज्य, भोग एवं सुख चाहते हैं, वे ही मरनेके लिये सामने खड़े हैं (पहले अध्यायका बत्तीसवाँ-तैंतीसवाँ
श्लोक) । यहाँ अर्जुन कहते हैं कि पृथ्वीका धन-धान्य-सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य
मिल जाय तथा देवताओंका आधिपत्य मिल जाय, तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता,
मैं उनसे सुखी नहीं हो सकता । वहाँ (पहले अध्यायके बत्तीसवें-तैंतीसवें
श्लोकमें) तो कौटुम्बिक ममताकी वृत्ति ज्यादा होनेसे अर्जुनकी युद्धसे उपरति हुई है,
पर यहाँ उनकी जो उपरति हो रही है,
वह अपने कल्याणकी वृत्ति पैदा होनेसे हो रही है । अतः वहाँकी
उपरति और यहाँकी उपरतिमें बहुत अन्तर है । ‘न हि
प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्’‒जब कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही मेरेको इतना शोक हो रहा
है,
तब उनके मरनेपर मेरेको कितना शोक होगा ! अगर मेरेको राज्यके
लिये ही शोक होता तो वह राज्यके मिलनेसे मिट जाता; परन्तु कुटुम्बके नाशकी आशंकासे होनेवाला शोक राज्यके मिलनेसे
कैसे मिटेगा ? शोकका मिटना तो दूर रहा, प्रत्युत शोक और बढ़ेगा; क्योंकि युद्धमें सब मारे जायँगे तो मिले हुए राज्यको कौन भोगेगा
? वह किसके काम आयेगा
? अतः पृथ्वीका राज्य और स्वर्गका
आधिपत्य मिलनेपर भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा शोक दूर नहीं हो सकता । രരരരരരരരരര सम्बन्ध‒प्राकृत पदार्थोंके प्राप्त होनेपर भी मेरा
शोक दूर हो जाय, यह मैं नहीं देखता हूँ‒ऐसा कहनेके बाद अर्जुनने क्या किया ? इसका वर्णन संजय आगेके श्लोकमें करते हैं । सूक्ष्म विषय‒श्लोक ९-१०‒युद्ध न
करनेका निश्चय प्रकट करके अर्जुनका चुप होना और मुस्कराते हुए भगवान्द्वारा
उपदेश आरम्भ करना । सञ्जय उवाच एवमुक्त्वा
हृषीकेशं
गुडाकेशः परन्तप । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥ अर्थ‒संजय बोले‒हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र ! ऐसा कहकर निद्राको जीतनेवाले अर्जुन
अन्तर्यामी भगवान् गोविन्दसे ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’
ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये ।
व्याख्या‒‘एवमुक्त्वा हृषीकेशम्............बभूव
ह’‒अर्जुनने अपना और भगवान्का‒दोनोंका पक्ष सामने रखकर उनपर विचार किया,
तो अन्तमें वे इसी निर्णयपर पहुँचे कि युद्ध करनेसे तो अधिक-से-अधिक
राज्य प्राप्त हो जायगा, मान हो जायगा, संसारमें यश हो जायगा, परन्तु मेरे हृदयमें जो शोक है,
चिन्ता है, दुःख है, वे दूर नहीं होंगे । अतः अर्जुनको युद्ध न करना ही ठीक मालूम
दिया ।
यद्यपि अर्जुन भगवान्की बातका आदर करते हैं और उसको मानना भी
चाहते हैं; परंतु उनके भीतर युद्ध करनेकी बात ठीक-ठीक जँच नहीं रही है । इसलिये अर्जुन अपने
भीतर जँची हुई बातको ही यहाँ स्पष्टरूपसे, साफ-साफ कह देते हैं कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’
। इस प्रकार जब अपनी बात, अपना निर्णय भगवान्से साफ-साफ कह दिया,
तब भगवान्से कहनेके लिये और कोई बात बाकी नहीं रही;
अतः वे चुप हो जाते हैं । രരരരരരരരരര |