Listen सम्बन्ध‒भगवान्के वचनोंमें ऐसी विलक्षणता है कि वे अर्जुनके
भीतर अपना प्रभाव डालते जा रहे हैं, जिससे अर्जुनको अपने युद्ध न करनेके निर्णयमें अधिक सन्देह होता
जा रहा है । ऐसी अवस्थाको प्राप्त हुए अर्जुन कहते हैं‒ सूक्ष्म विषय‒युद्ध करने अथवा न करनेमें और विजय होने
अथवा न होनेमें अर्जुनद्वारा सन्देह प्रकट करना । न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो‒ यद्वा जयेम यदि
वा नो जयेयुः । यानेव हत्वा
न जिजीविषाम‒
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥ अर्थ‒(हम) यह भी नहीं जानते (कि) हमलोगोंके लिये (युद्ध करना और न
करना‒इन) दोनोंमेंसे कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है अथवा (हम उन्हें)
जीतेंगे या (वे) हमें जीतेंगे । जिनको मारकर (हम) जीना भी नहीं चाहते,
वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी (हमारे) सामने खड़े हैं ।
व्याख्या‒‘न चैतद्विद्मः कतरन्नो
गरीयः’‒मैं युद्ध करूँ अथवा न करूँ‒इन दोनों बातोंका निर्णय मैं नहीं कर पा रहा हूँ । कारण कि आपकी
दृष्टिमें तो युद्ध करना ही श्रेष्ठ है, पर मेरी दृष्टिमें गुरुजनोंको मारना पाप होनेके कारण युद्ध
न करना ही श्रेष्ठ है । इन दोनों पक्षोंको सामने रखनेपर मेरे लिये कौन-सा पक्ष अत्यन्त
श्रेष्ठ है‒यह मैं नहीं जान पा रहा हूँ । इस प्रकार उपर्युक्त पदोंमें अर्जुनके
भीतर भगवान्का पक्ष और अपना पक्ष दोनों समकक्ष हो गये हैं । ‘यद्वा
जयेम यदि वा नो जयेयुः’‒अगर आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध भी किया जाय,
तो हम उनको जीतेंगे अथवा वे (दुर्योधनादि) हमारेको जीतेंगे‒इसका भी हमें पता नहीं है । यहाँ अर्जुनको अपने बलपर अविश्वास नहीं है,
प्रत्युत भविष्यपर अविश्वास है;
क्योंकि भविष्यमें क्या होनहार है‒इसका किसीको क्या पता ? ‘यानेव
हत्वा न जिजीविषामः’‒हम तो कुटुम्बियोंको मारकर जीनेकी भी इच्छा नहीं रखते;
भोग भोगनेकी, राज्य प्राप्त करके हुक्म चलानेकी बात तो बहुत दूर रही ! कारण
कि अगर हमारे कुटुम्बी मारे जायँगे, तो हम जीकर क्या करेंगे ? अपने हाथोंसे कुटुम्बको नष्ट करके बैठे-बैठे चिन्ता-शोक ही
तो करेंगे ! चिन्ता-शोक करने और वियोगका दुःख भोगनेके लिये हम जीना नहीं चाहते । ‘तेऽवस्थिताः
प्रमुखे धार्तराष्ट्राः’‒हम जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते,
वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं । धृतराष्ट्रके
सभी सम्बन्धी हमारे कुटुम्बी ही तो हैं । उन कुटुम्बियोंको मारकर हमारे जीनेको धिक्कार
है ! രരരരരരരരരര सम्बन्ध‒अपने कर्तव्यका निर्णय करनेमें अपनेको असमर्थ
पाकर अब अर्जुन व्याकुलतापूर्वक भगवान्से प्रार्थना करते हैं । सूक्ष्म विषय‒कर्तव्य-निर्णयके लिये अर्जुनद्वारा भगवान्का
शिष्यत्व स्वीकार करना और उनके शरण होना । कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः । यच्छ्रेयः
स्यान्निश्चितं ब्रूहि
तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां
त्वां प्रपन्नम् ॥ ७ ॥ अर्थ‒कायरतारूपदोषसे तिरस्कृत स्वभाववाला (और) धर्मके विषयमें मोहित
अन्तःकरणवाला (मैं) आपसे पूछता हूँ (कि) जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो,
वह (बात) मेरे लिये कहिये । मैं आपका शिष्य हूँ । आपके शरण हुए
मुझे शिक्षा दीजिये ।
व्याख्या‒‘कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः’१ १.यहाँ ‘चेतस्’ शब्द बुद्धिका वाचक है । ‒यद्यपि अर्जुन अपने मनमें युद्धसे सर्वथा निवृत्त होनेको सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते
थे,
तथापि पापसे बचनेके लिये उनको युद्धसे उपराम होनेके सिवाय दूसरा
कोई उपाय भी नहीं दीखता था । इसलिये वे युद्धसे उपराम होना चाहते थे और उपराम होनेको
गुण ही मानते थे, कायरतारूप दोष नहीं । परन्तु भगवान्ने अर्जुनकी इस उपरतिको
कायरता और हृदयकी तुच्छ दुर्बलता कहा, तो भगवान्के उन निःसंदिग्ध वचनोंसे अर्जुनको ऐसा विचार हुआ
कि युद्धसे निवृत्त होना मेरे लिये उचित नहीं है । यह तो एक तरहकी कायरता ही है,
जो मेरे स्वभावके बिलकुल विरुद्ध है;
क्योंकि मेरे क्षात्र-स्वभावमें दीनता और पलायन (पीठ दिखाना)‒ये दोनों ही नहीं हैं ।२ २.अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वे
न दैन्यं न पलायनम् । इस तरह भगवान्के द्वारा कथित कायरतारूप दोषको अपनेमें स्वीकार
करते हुए अर्जुन भगवान्से कहते हैं कि एक तो कायरतारूप दोषके कारण मेरा क्षात्र-स्वभाव
एक तरहसे दब गया है और दूसरी बात, मैं अपनी बुद्धिसे धर्मके विषयमें कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा
हूँ । मेरी बुद्धिमें ऐसी मूढ़ता छा गयी है कि धर्मके विषयमें मेरी बुद्धि कुछ भी काम
नहीं कर रही है ! तीसरे श्लोकमें तो भगवान्ने अर्जुनको स्पष्टरूपसे आज्ञा दे
दी थी कि ‘हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको, कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़े हो जाओ’
। इससे अर्जुनको धर्म (कर्तव्य)-के विषयमें कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये था ।
फिर भी सन्देह रहनेका कारण यह है कि एक तरफ तो युद्धमें कुटुम्बका नाश करना,
पूज्यजनोंको मारना अधर्म (पाप) दीखता है और दूसरी तरफ युद्ध
करना क्षत्रियका धर्म दीखता है । इस प्रकार कुटुम्बियोंको देखते हुए युद्ध नहीं करना
चाहिये और क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्ध करना चाहिये‒इन दो बातोंको लेकर अर्जुन धर्म-संकटमें पड़ गये । उनकी बुद्धि
धर्मका निर्णय करनेमें कुण्ठित हो गयी । ऐसा होनेपर ‘अभी इस समय मेरे लिये खास कर्तव्य क्या है
? मेरा धर्म क्या है
?’ इसका निर्णय करानेके लिये वे
भगवान्से पूछते हैं । ‘यच्छ्रेयः
स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’‒इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा था कि तू जो कायरताके
कारण युद्धसे निवृत्त हो रहा है, तेरा यह आचरण ‘अनार्यजुष्ट’
है अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष ऐसा आचरण नहीं करते,
वे तो जिसमें अपना कल्याण हो, वही आचरण करते हैं । यह बात सुनकर अर्जुनके मनमें आया कि मुझे
भी वही करना चाहिये, जो श्रेष्ठ पुरुष किया करते हैं । इस प्रकार अर्जुनके मनमें
कल्याणकी इच्छा जाग्रत् हो गयी और उसीको लेकर वे भगवान्से अपने कल्याणकी बात पूछते
हैं कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो जाय, ऐसी बात मेरेसे कहिये । अर्जुनके हृदयमें हलचल (विषाद) होनेसे और अब यहाँ अपने कल्याणकी
बात पूछनेसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य जिस स्थितिमें स्थित है,
उसी स्थितिमें वह संतोष करता रहता है तो उसके भीतर अपने असली
उद्देश्यकी जागृति नहीं होती । वास्तविक उद्देश्य‒कल्याणकी जागृति तभी होती है, जब मनुष्य अपनी वर्तमान स्थितिसे असन्तुष्ट हो जाय,
उस स्थितिमें रह न सके । ‘शिष्यस्तेऽहम्’‒अपने कल्याणकी बात पूछनेपर अर्जुनके मनमें यह भाव पैदा हुआ कि
कल्याणकी बात तो गुरुसे पूछी जाती है, सारथिसे नहीं पूछी जाती । इस बातको लेकर अर्जुनके मनमें जो रथीपनका
भाव था,
जिसके कारण वे भगवान्को यह आज्ञा दे रहे थे कि ‘हे अच्युत ! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये’,
वह भाव मिट जाता है और अपने कल्याणकी बात पूछनेके लिये अर्जुन
भगवान्के शिष्य हो जाते हैं और कहते हैं कि ‘महाराज ! मैं आपका शिष्य हूँ, शिक्षा लेनेका पात्र हूँ, आप मेरे कल्याणकी बात कहिये’
। ‘शाधि
मां त्वां प्रपन्नम्’‒गुरु तो उपदेश दे देंगे, जिस मार्गका ज्ञान नहीं है, उसका ज्ञान करा देंगे, पूरा प्रकाश दे देंगे, पूरी बात बता देंगे, पर मार्गपर तो स्वयं शिष्यको ही चलना पड़ेगा । अपना कल्याण तो
शिष्यको ही करना पड़ेगा । मैं तो ऐसा नहीं चाहता कि भगवान् उपदेश दें और मैं उसका अनुष्ठान
करूँ;
क्योंकि उससे मेरा काम नहीं चलेगा । अतः अपने कल्याणकी जिम्मेवारी
मैं अपनेपर क्यों रखूँ ? गुरुपर ही क्यों न छोड़ दूँ ! जैसे केवल माँके दूधपर ही निर्भर
रहनेवाला बालक बीमार हो जाय, तो उसकी बीमारी दूर करनेके लिये ओषधि स्वयं माँको खानी पड़ती
है,
बालकको नहीं । इसी तरह मैं भी सर्वथा गुरुके ही शरण हो जाऊँ,
गुरुपर ही निर्भर हो जाऊँ, तो मेरे कल्याणका पूरा दायित्व गुरुपर ही आ जायगा,
स्वयं गुरुको ही मेरा कल्याण करना पड़ेगा‒इस भावसे अर्जुन कहते हैं कि ‘मैं आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये’
। यहाँ अर्जुन ‘त्वां प्रपन्नम्’ पदोंसे भगवान्के शरण होनेकी बात तो कहते हैं,
पर वास्तवमें सर्वथा शरण हुए नहीं हैं । अगर वे सर्वथा शरण हो
जाते,
तो फिर उनके द्वारा ‘शाधि माम्’ ‘मेरेको शिक्षा दीजिये’
यह कहना नहीं बनता; क्योंकि सर्वथा शरण होनेपर शिष्यका अपना कोई कर्तव्य रहता ही
नहीं । दूसरी बात, आगे नवें श्लोकमें अर्जुन कहेंगे कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’‒‘न योत्स्ये ।’ अर्जुनकी वह बात भी शरणागतिके विरुद्ध पड़ती है । कारण कि शरणागत
होनेके बाद ‘मैं युद्ध करूँगा या नहीं करूँगा; क्या करूँगा और क्या नहीं करूँगा’‒यह बात रहती ही नहीं । उसको यह पता ही नहीं रहता कि शरण्य क्या
करायेंगे और क्या नहीं करायेंगे । उसका तो यही एक भाव रहता है कि अब शरण्य जो करायेंगे,
वही करूँगा । अर्जुनकी इस कमीको दूर करनेके लिये ही आगे चलकर
भगवान्को ‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८ । ६६) ‘एक मेरी शरणमें आ जा’‒ऐसा कहना पड़ा । फिर अर्जुनने भी ‘करिष्ये
वचनं तव’ (१८ ।
७३) ‘आपकी आज्ञाका पालन करूँगा’‒ऐसा कहकर पूर्ण शरणागतिको स्वीकार किया ।
इस श्लोकमें अर्जुनने चार बातें कहीं हैं‒(१) ‘कार्पण्यदोषो..धर्मसम्मूढचेताः’ (२) ‘यच्छ्रेयः
स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (३) ‘शिष्यस्तेऽहम्’ (४) ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।’
इनमेंसे पहली बातमें अर्जुन धर्मके विषयमें पूछते हैं,
दूसरी बातमें अपने कल्याणके लिये प्रार्थना करते हैं,
तीसरी बातमें शिष्य बन जाते हैं और चौथी बातमें शरणागत हो जाते
हैं । अब इन चारों बातोंपर विचार किया जाय, तो पहली बातमें मनुष्य जिससे पूछता है,
वह कहनेमें अथवा न कहनेमें स्वतन्त्र होता है । दूसरीमें,
जिससे प्रार्थना करता है, उसके लिये कहना कर्तव्य हो जाता है । तीसरीमें,
जिनका शिष्य बन जाता है, उन गुरुपर शिष्यको कल्याणका मार्ग बतानेका विशेष दायित्व आ जाता
है । चौथीमें, जिसके शरणागत हो जाता है, उस शरण्यको शरणागतका उद्धार करना ही पड़ता है अर्थात् उसके उद्धारका
उद्योग स्वयं शरण्यको करना पड़ता है । രരരരരരരരരര |
May
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