।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपूर्वश्‍लोकमें अर्जुनने उत्तेजित होकर भगवान्‌से अपना निर्णय कह दिया । अब भगवद्‌वाणीका असर होनेपर अर्जुन अपने और भगवान्‌के निर्णयका सन्तुलन करके कहते हैं

सूक्ष्म विषयअर्जुनका युद्ध न करनेमें श्रेय देखना ।

 गुरूनहत्वा    हि    महानुभावान्

   श्रेयो   भोक्तुं  भैक्ष्यमपीह  लोके ।

 हत्वार्थकामांस्तु          गुरूनिहैव

         भुञ्‍जीय    भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥

अर्थ‒महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर इस लोकमें (मैं) भिक्षाका अन्‍न खाना भी श्रेष्‍ठ (समझता हूँ); क्योंकि गुरुजनोंको मारकर यहाँ रक्तसे सने हुए (तथा) धनकी कामनाकी मुख्यतावाले भोगोंको ही तो भोगूँगा !

महानुभावान् = महानुभाव

गुरून् = गुरुजनोंको

गुरून् = गुरुजनोंको

हत्वा = मारकर

अहत्वा = न मारकर

इह = यहाँ

इह = इस

रुधिरप्रदिग्धान् = रक्तसे सने हुए (तथा)

लोके = लोकमें (मैं)

अर्थकामान् = धनकी कामनाकी मुख्यतावाले

भैक्ष्यम् = भिक्षाका अन्‍न

भोगान् = भोगोंको

भोक्तुम् = खाना

एव = ही

अपि = भी

तु = तो

श्रेयः = श्रेष्‍ठ (समझता हूँ),

भुञ्‍जीय = भोगूँगा !

हि = क्योंकि

 

व्याख्या‒[ इस श्‍लोकसे ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे-तीसरे श्‍लोकोंमें भगवान्‌के कहे हुए वचन अब अर्जुनके भीतर असर कर रहे हैं । इससे अर्जुनके मनमें यह विचार आ रहा है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनोंको मारना धर्मयुक्त नहीं हैऐसा जानते हुए भी भगवान् मुझे बिना किसी सन्देहके युद्धके लिये आज्ञा दे रहे हैं, तो कहीं-न-कहीं मेरी समझमें ही गलती है ! इसलिये अर्जुन अब पूर्वश्‍लोककी तरह उत्तेजित होकर नहीं बोलते, प्रत्युत कुछ ढिलाईसे बोलते हैं । ]

गुरूनहत्वा.....भैक्ष्यमपीह लोकेअब अर्जुन पहले अपने पक्षको सामने रखते हुए कहते हैं कि अगर मैं भीष्म, द्रोण आदि पूज्यजनोंके साथ युद्ध नहीं करूँगा, तो दुर्योधन भी अकेला मेरे साथ युद्ध नहीं करेगा । इस तरह युद्ध न होनेसे मेरेको राज्य नहीं मिलेगा, जिससे मेरेको दुःख पाना पड़ेगा । मेरा जीवन-निर्वाह भी कठिनतासे होगा । यहाँतक कि क्षत्रियके लिये निषिद्ध जो भिक्षावृत्ति है, उसको भी जीवन-निर्वाहके लिये ग्रहण करना पड़ सकता है । परन्तु गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा मैं उस कष्‍टदायक भिक्षा-वृत्तिको भी ग्रहण करना श्रेष्‍ठ मानता हूँ ।

इह लोके कहनेका तात्पर्य है कि यद्यपि भिक्षा माँगकर खानेसे इस संसारमें मेरा अपमान-तिरस्कार होगा, लोग मेरी निन्दा करेंगे, तथापि गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा भिक्षा माँगना श्रेष्‍ठ है ।

अपि कहनेका तात्पर्य है कि मेरे लिये गुरुजनोंको मारना भी निषिद्ध है और भिक्षा माँगना भी निषिद्ध है; परन्तु इन दोनोंमें भी गुरुजनोंको मारना मुझे अधिक निषिद्ध दीखता है ।

हत्वार्थकामांस्तु.........रुधिरप्रदिग्धान्अब अर्जुन भगवान्‌के वचनोंकी तरफ दृष्‍टि करते हुए कहते हैं कि अगर मैं आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध करूँ, तो युद्धमें गुरुजनोंकी हत्याके परिणाममें मैं उनके खूनसे सने हुए और जिनमें धन आदिकी कामना ही मुख्य है, ऐसे भोगोंको ही तो भोगूँगा । मेरेको भोग ही तो मिलेंगे । उन भोगोंके मिलनेसे मुक्ति थोड़े ही होगी ! शान्ति थोड़े ही मिलेगी !

यहाँ यह प्रश्‍न हो सकता है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजन धनके द्वारा ही कौरवोंसे बँधे थे; अतः यहाँ अर्थकामान् पदको गुरून् पदका विशेषण मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है ? इसका उत्तर यह है कि अर्थकी कामनावाले गुरुजन’‒ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है । कारण कि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण आदि गुरुजन धनकी कामनावाले नहीं थे । वे तो दुर्योधनके वृत्तिभोगी थे, उन्होंने दुर्योधनका अन्‍न खाया था । अतः युद्धके समय दुर्योधनका साथ छोड़ना कर्तव्य न समझकर ही वे कौरवोंके पक्षमें खड़े हुए थे ।

दूसरी बात, अर्जुनने भीष्म, द्रोण आदिके लिये महानुभावान् पदका प्रयोग किया है । अतः ऐसे श्रेष्‍ठ भाववालोंको अर्थकी कामनावाले कैसे कहा जा सकता है ! तात्पर्य है कि जो महानुभाव हैं, वे अर्थकी कामनावाले नहीं हो सकते और जो अर्थकी कामनावाले हैं, वे महानुभाव नहीं हो सकते । अतः यहाँ अर्थकामान् पद भोगान् पदका ही विशेषण हो सकता है ।

विशेष बात

भगवान्‌ने दूसरे-तीसरे श्‍लोकोंमें अर्जुनके कल्याणकी दृष्‍टिसे ही उन्हें कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़ा होनेकी आज्ञा दी थी । परन्तु अर्जुन उलटा ही समझे अर्थात् वे समझे कि भगवान् राज्यका भोग करनेकी दृष्‍टिसे ही युद्धकी आज्ञा देते हैं

१.केवल भौतिक दृष्‍टि रखनेवाले मनुष्य कल्याणकी बात सोच ही नहीं सकते । जबतक भौतिक पदार्थोंकी तरफ ही दृष्‍टि रहती है, तबतक आध्यात्मिक दृष्‍टि जाग्रत् नहीं होती । यहाँ अर्जुनकी दृष्‍टिमें शरीर आदि भौतिक पदार्थोंकी मुख्यता हो रही है । वे कौटुम्बिक मोह-ममतामें फँसकर धर्मको भी भौतिक दृष्‍टिसे ही देख रहे हैं । भौतिक (प्राकृत) दृष्‍टिसे अत्यन्त विलक्षण आध्यात्मिक दृष्‍टिकी तरफ अभी अर्जुनका खयाल नहीं है अर्थात् उनकी दृष्‍टि भौतिक राज्यसे ऊपर नहीं जा रही है और वे कौटुम्बिक मोह-ममताके प्रवाहमें बह रहे हैं । इसलिये वे ऐसा समझ रहे हैं कि युद्धमें प्रवृत्त कराकर भगवान् मुझे राज्य दिलाना चाहते हैं, जबकि वास्तवमें भगवान् उनका कल्याण करना चाहते हैं ।

पहले तो अर्जुनका युद्ध न करनेका एक ही पक्ष था, जिससे वे धनुष-बाण छोड़कर और शोकाविष्‍ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (पहले अध्यायका सैंतालीसवाँ श्‍लोक) । परंतु युद्ध करनेका पक्ष तो भगवान्‌के कहनेसे ही हुआ है । तात्पर्य है कि अर्जुनका भाव था कि हमलोग तो धर्मको जानते हैं, पर दुर्योधन आदि धर्मको नहीं जानते, इसलिये वे धन, राज्य आदिके लोभसे युद्ध करनेके लिये तैयार खड़े हैं । अब वही बात अर्जुन यहाँ अपने लिये कहते हैं कि अगर मैं भी आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध करूँ, तो परिणाममें गुरुजनोंके रक्तसे सने हुए धन, राज्य आदिको ही तो प्राप्‍त करूँगा ! इस तरह अर्जुनको युद्ध करनेमें बुराई-ही-बुराई दिखायी दे रही है ।

जो बुराई बुराईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा सुगम होता है । परंतु जो बुराई अच्छाईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है; जैसेसीताजीके सामने रावण और हनुमान्‌जीके सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान्‌जी पहचान नहीं सके; क्योंकि उन दोनोंका वेश साधुओंका था । अर्जुनकी मान्यतामें युद्धरूप कर्तव्य-कर्म करना बुराई है और युद्ध न करना भलाई है अर्थात् अर्जुनके मनमें धर्म (हिंसा-त्याग)-रूप भलाईके वेशमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है । उनको कर्तव्य-त्यागरूप बुराई बुराईके रूपमें नहीं दीख रही है; क्योंकि उनके भीतर शरीरोंको लेकर मोह है । अतः इस बुराईको मिटानेमें भगवान्‌को भी बड़ा जोर पड़ रहा है और समय लग रहा है ।

आजकल समाजमें एकताके बहाने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाको मिटानेकी कोशिश की जा रही है, तो यह बुराई एकतारूप अच्छाईके वेशमें आनेसे बुराईरूपसे नहीं दीख रही है । अतः वर्ण-आश्रमकी मर्यादा मिटनेसे परिणाममें लोगोंका कितना पतन होगा, लोगोंमें कितना आसुरभाव आयेगाइस तरफ दृष्‍टि ही नहीं जाती । ऐसे ही धनके बहाने लोग झूठ, कपट, बेईमानी, ठगी, विश्‍वासघात आदि-आदि दोषोंको भी दोषरूपसे नहीं जानते । यहाँ अर्जुनमें धर्मके रूपमें बुराई आयी है कि हम भीष्म, द्रोण आदि महानुभावोंको कैसे मार सकते हैं ? क्योंकि हम धर्मको जाननेवाले हैं । तात्पर्य है कि अर्जुनने जिसको अच्छाई माना है, वह वास्तवमें बुराई ही है; परन्तु उसमें मान्यता अच्छाईकी होनेसे वह बुराईरूपसे नहीं दीख रही है ।

परिशिष्‍ट भाव‘महानुभावान्भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनोंका अनुभाव, भीतरका भाव श्रेष्‍ठ है, शुद्ध है; क्योंकि युद्ध करते हुए भी उनमें पक्षपात नहीं है ।

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