।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपहले अध्यायमें अर्जुनने युद्ध न करनेके विषयमें बहुत-सी युक्तियाँ (दलीलें) दी थीं । उन युक्तियोंका कुछ भी आदर न करके भगवान्‌ने एकाएक अर्जुनको कायरतारूप दोषके लिये जोरसे फटकारा और युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा दे दी । इस बातको लेकर अर्जुन भी अपनी युक्तियोंका समाधान न पाकर एकाएक उत्तेजित होकर बोल उठे

सूक्ष्म विषयअर्जुनका भीष्म और द्रोणको मारना अनुचित बताना ।

अर्जुन उवाच

कथं  भीष्ममहं सङ्ख्ये  द्रोणं च मधुसूदन ।

       इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥

अर्थ‒अर्जुन बोलेहे मधुसूदन ! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे कैसे युद्ध करूँ ? (क्योंकि) हे अरिसूदन ! (ये) दोनों ही पूजाके योग्य हैं ।

मधुसूदन = हे मधुसूदन !

प्रति = साथ

अहम् = मैं

इषुभिः = बाणोंसे

सङ्ख्ये = रणभूमिमें

कथम् = कैसे

भीष्मम् = भीष्म

योत्स्यामि = युद्ध करूँ ? (क्योंकि)

च = और

अरिसूदन = हे अरिसूदन ! (ये)

द्रोणम् = द्रोणके

पूजार्हौ = दोनों ही पूजाके योग्य हैं ।

व्याख्यामधुसूदन और अरिसूदनये दो सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप दैत्योंको और शत्रुओंको मारनेवाले हैं अर्थात् जो दुष्‍ट स्वभाववाले, अधर्ममय आचरण करनेवाले और दुनियाको कष्‍ट देनेवाले मधु-कैटभ आदि दैत्य हैं, उनको भी आपने मारा है और जो बिना कारण द्वेष रखते हैं, अनिष्‍ट करते हैं, ऐसे शत्रुओंको भी आपने मारा है । परन्तु मेरे सामने तो पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण खड़े हैं, जो आचरणोंमें सर्वथा श्रेष्‍ठ हैं, मेरेपर अत्यधिक स्‍नेह रखनेवाले हैं और प्यारपूर्वक मेरेको शिक्षा देनेवाले हैं । ऐसे मेरे परम हितैषी दादाजी और विद्यागुरुको मैं कैसे मारूँ ?

कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च

१.दूसरे श्‍लोकमें भगवान्‌ने कुतःपदसे कहा था कि तुम्हारेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी ? उस कुतःपदके बदलेमें ही अर्जुन यहाँ कथम्पदसे अपनी बात कहते हैं ।

मैं कायरताके कारण युद्धसे विमुख नहीं हो रहा हूँ, प्रत्युत धर्मको देखकर युद्धसे विमुख हो रहा हूँ; परन्तु आप कह रहे हैं कि यह कायरता, यह नपुंसकता तुम्हारेमें कहाँसे आ गयी ! आप जरा सोचें कि मैं पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके साथ बाणोंसे युद्ध कैसे करूँ ? महाराज ! यह मेरी कायरता नहीं है । कायरता तो तब कही जाय, जब मैं मरनेसे डरूँ । मैं मरनेसे नहीं डर रहा हूँ, प्रत्युत मारनेसे डर रहा हूँ ।

संसारमें दो ही तरहके सम्बन्ध मुख्य हैंजन्म-सम्बन्ध और विद्या-सम्बन्ध । जन्मके सम्बन्धसे तो पितामह भीष्म हमारे पूजनीय हैं । बचपनसे ही मैं उनकी गोदमें पला हूँ । बचपनमें जब मैं उनको पिताजी-पिताजीकहता, तब वे प्यारसे कहते कि मैं तो तेरे पिताका भी पिता हूँ !इस तरह वे मेरेपर बड़ा ही प्यार, स्‍नेह रखते आये हैं । विद्याके सम्बन्धसे आचार्य द्रोण हमारे पूजनीय हैं । वे मेरे विद्यागुरु हैं । उनका मेरेपर इतना स्‍नेह है कि उन्होंने खास अपने पुत्र अश्‍वत्थामाको भी मेरे समान नहीं पढ़ाया । उन्होंने ब्रह्मास्‍त्रको चलाना तो दोनोंको सिखाया, पर ब्रह्मास्‍त्रका उपसंहार करना मेरेको ही सिखाया, अपने पुत्रको नहीं । उन्होंने मेरेको यह वरदान भी दिया है कि मेरे शिष्योंमें अस्‍त्र-शस्‍त्र-कलामें तुम्हारेसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं होगा ।ऐसे पूजनीय पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके सामने तो वाणीसे रे, ‘तू’‒ऐसा कहना भी उनकी हत्या करनेके समान पाप है, फिर मारनेकी इच्छासे उनके साथ बाणोंसे युद्ध करना कितने भारी पापकी बात है !

इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हौसम्बन्धमें बड़े होनेके नाते पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणये दोनों ही आदरणीय और पूजनीय हैं । इनका मेरेपर पूरा अधिकार है । अतः ये तो मेरेपर प्रहार कर सकते हैं, पर मैं उनपर बाणोंसे कैसे प्रहार करूँ ? उनका प्रतिद्वन्द्वी होकर युद्ध करना तो मेरे लिये बड़े पापकी बात है ! क्योंकि ये दोनों ही मेरे द्वारा सेवा करनेयोग्य हैं और सेवासे भी बढ़कर पूजा करनेयोग्य हैं । ऐसे पूज्यजनोंको मैं बाणोंसे कैसे मारूँ ?

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