।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धकायरता आनेके बाद अब क्या करें ? इस जिज्ञासाको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।

       क्षुद्रं  हृदयदौर्बल्यं  त्यक्त्वोत्तिष्‍ठ  परन्तप ॥ ३ ॥

अर्थ‒हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकताको मत प्राप्‍त हो; (क्योंकि) तुम्हारेमें यह उचित नहीं है । हे परन्तप ! हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका त्याग करके (युद्धके लिये) खड़े हो जाओ ।

पार्थ = हे पृथानन्दन अर्जुन !

, उपपद्यते = उचित नहीं है ।

क्लैब्यम् = इस नपुंसकताको

परन्तप = हे परन्तप !

मा, स्म, = मत प्राप्‍त हो;

क्षुद्रम्, हृदयदौर्बल्यम् = हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका

गमः = (क्योंकि)

त्यक्त्वा = त्याग करके (युद्धके लिये)

त्वयि = तुम्हारेमें

उत्तिष्‍ठ = खड़े हो जाओ ।

एतत् = यह

 

व्याख्यापार्थ

१.पृथा (कुन्ती)-के पुत्र होनेसे अर्जुनका एक नामपार्थभी है ।पार्थसम्बोधन भगवान्‌की अर्जुनके साथ प्रियता और घनिष्‍ठताका द्योतक है । गीतामें भगवान्‌ने अड़तीस बारपार्थसम्बोधनका प्रयोग किया है । अर्जुनके अन्य सभी सम्बोधनोंकी अपेक्षापार्थसम्बोधनका प्रयोग अधिक हुआ है । इसके बाद सबसे अधिक प्रयोगकौन्तेयसम्बोधनका हुआ है जिसकी आवृत्ति कुल चौबीस बार हुई है ।

भगवान्‌को अर्जुनसे जब कोई विशेष बात कहनी होती है या कोई आश्‍वासन देना होता है या उनके प्रति भगवान्‌का विशेषरूपसे प्रेम उमड़ता है, तब भगवान् उन्हेंपार्थकहकर पुकारते हैं । इस सम्बोधनके प्रयोगसे मानो वे स्मरण कराते हैं कि तुम मेरी बुआ (पृथाकुन्ती)-के लड़के तो हो ही, साथ-ही-साथ मेरे प्यारे भक्त और सखा भी हो (गीता ४ । ३) । अतः मैं तुम्हें विशेष गोपनीय बातें बताता हूँ और जो कुछ भी कहता हूँ सत्य तथा केवल तुम्हारे हितके लिये कहता हूँ ।

माता पृथा (कुन्ती)-के सन्देशकी याद दिलाकर अर्जुनके अन्तःकरणमें क्षत्रियोचित वीरताका भाव जाग्रत् करनेके लिये भगवान् अर्जुनको पार्थनामसे सम्बोधित करते हैं

२.कुन्तीका सन्देश था

एतद् धनञ्‍जयो वाच्यो नित्योद्युक्तो वृकोदरः ॥

यदर्थं   क्षत्रिया   सूते  तस्य   कालोऽयमागतः ।

(महा, उद्यो १३७ । ९-१०)

तुम अर्जुनसे तथा युद्धके लिये सदा उद्यत रहनेवाले भीमसे यह कहना कि जिस कार्यके लिये क्षत्रियमाता पुत्र उत्पन्‍न करती है, अब उसका समय आ गया है ।

तात्पर्य है कि अपनेमें कायरता लाकर तुम्हें माताकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।

क्लैब्यं मा स्म गमःअर्जुन कायरताके कारण युद्ध करनेमें अधर्म और युद्ध न करनेमें धर्म मान रहे थे । अतः अर्जुनको चेतानेके लिये भगवान् कहते हैं कि युद्ध न करना धर्मकी बात नहीं है, यह तो नपुंसकता (हिजड़ापन) है । इसलिये तुम इस नपुंसकताको छोड़ दो ।

नैतत्त्वय्युपपद्यतेतुम्हारेमें यह हिजड़ापन नहीं आना चाहिये था; क्योंकि तुम कुन्ती-जैसी वीर क्षत्राणी माताके पुत्र हो और स्वयं भी शूरवीर हो । तात्पर्य है कि जन्मसे और अपनी प्रकृतिसे भी यह नपुंसकता तुम्हारेमें सर्वथा अनुचित है ।

परन्तपतुम स्वयं परन्तप हो अर्थात् शत्रुओंको तपानेवाले, भगानेवाले हो, तो क्या तुम इस समय युद्धसे विमुख होकर अपने शत्रुओंको हर्षित करोगे ?

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्‍ठयहाँ क्षुद्रम् पदके दो अर्थ होते हैं(१) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छताको प्राप्‍त करानेवाली है अर्थात् मुक्ति, स्वर्ग अथवा कीर्तिको देनेवाली नहीं है । अगर तुम इस तुच्छताका त्याग नहीं करोगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे; और (२) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छ चीज है । तुम्हारे-जैसे शूरवीरके लिये ऐसी तुच्छ चीजका त्याग करना कोई कठिन काम नहीं है ।

तुम जो ऐसा मानते हो कि मैं धर्मात्मा हूँ और युद्धरूपी पाप नहीं करना चाहता, तो यह तुम्हारे हृदयकी दुर्बलता है, कमजोरी है । इसका त्याग करके तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ अर्थात् अपने प्राप्‍त कर्तव्यका पालन करो ।

यहाँ अर्जुनके सामने युद्धरूप कर्तव्य-कर्म है । इसलिये भगवान् कहते हैं कि उठो, खड़े हो जाओ और युद्धरूप कर्तव्यका पालन करो। भगवान्‌के मनमें अर्जुनके कर्तव्यके विषयमें जरा-सा भी सन्देह नहीं है । वे जानते हैं कि सभी दृष्‍टियोंसे अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है । अतः अर्जुनकी थोथी युक्तियोंकी परवाह न करके उनको अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये चट आज्ञा देते हैं कि पूरी तैयारीके साथ युद्ध करनेके लिये खड़े हो जाओ ।

परिशिष्‍ट भावइस बातका विस्तार भगवान्‌ने आगे इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्‍लोकतक किया है ।

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