Listen सम्बन्ध‒कायरता आनेके बाद अब क्या करें
? इस जिज्ञासाको दूर करनेके लिये
भगवान् कहते हैं‒ क्लैब्यं
मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ ३ ॥ अर्थ‒हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकताको मत प्राप्त हो;
(क्योंकि) तुम्हारेमें यह उचित
नहीं है । हे परन्तप ! हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका त्याग करके (युद्धके लिये) खड़े
हो जाओ ।
व्याख्या‒‘पार्थ’१ १.पृथा (कुन्ती)-के पुत्र होनेसे अर्जुनका एक नाम ‘पार्थ’ भी है । ‘पार्थ’ सम्बोधन भगवान्की अर्जुनके साथ प्रियता और घनिष्ठताका द्योतक
है । गीतामें भगवान्ने अड़तीस बार ‘पार्थ’ सम्बोधनका प्रयोग किया है । अर्जुनके अन्य सभी सम्बोधनोंकी अपेक्षा ‘पार्थ’ सम्बोधनका प्रयोग अधिक हुआ है । इसके बाद सबसे अधिक प्रयोग ‘कौन्तेय’ सम्बोधनका हुआ है जिसकी आवृत्ति कुल चौबीस बार हुई है । भगवान्को अर्जुनसे जब कोई विशेष बात कहनी होती है या
कोई आश्वासन देना होता है या उनके प्रति भगवान्का विशेषरूपसे प्रेम उमड़ता है, तब भगवान् उन्हें ‘पार्थ’ कहकर पुकारते हैं । इस सम्बोधनके प्रयोगसे मानो वे स्मरण कराते
हैं कि तुम मेरी बुआ (पृथा‒कुन्ती)-के लड़के तो हो ही, साथ-ही-साथ मेरे प्यारे भक्त और सखा भी हो (गीता ४ । ३) । अतः मैं तुम्हें विशेष गोपनीय बातें बताता हूँ और जो कुछ भी
कहता हूँ सत्य तथा केवल तुम्हारे हितके लिये कहता हूँ । ‒माता पृथा (कुन्ती)-के सन्देशकी याद दिलाकर अर्जुनके अन्तःकरणमें
क्षत्रियोचित वीरताका भाव जाग्रत् करनेके लिये भगवान् अर्जुनको ‘पार्थ’ नामसे सम्बोधित करते हैं२ । २.कुन्तीका सन्देश था‒ एतद् धनञ्जयो वाच्यो नित्योद्युक्तो वृकोदरः ॥ यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः । (महा॰, उद्यो॰ १३७ । ९-१०) ‘तुम अर्जुनसे तथा युद्धके लिये सदा उद्यत रहनेवाले भीमसे
यह कहना कि जिस कार्यके लिये क्षत्रियमाता पुत्र उत्पन्न करती है, अब उसका समय आ गया है ।’ तात्पर्य है कि अपनेमें कायरता लाकर तुम्हें माताकी आज्ञाका
उल्लंघन नहीं करना चाहिये । ‘क्लैब्यं मा स्म गमः’‒अर्जुन कायरताके कारण युद्ध करनेमें अधर्म और युद्ध न करनेमें धर्म मान रहे थे
। अतः अर्जुनको चेतानेके लिये भगवान् कहते हैं कि युद्ध न करना धर्मकी बात नहीं है,
यह तो नपुंसकता (हिजड़ापन) है । इसलिये तुम इस नपुंसकताको छोड़
दो । ‘नैतत्त्वय्युपपद्यते’‒तुम्हारेमें यह हिजड़ापन नहीं आना चाहिये था;
क्योंकि तुम कुन्ती-जैसी वीर क्षत्राणी माताके पुत्र हो और स्वयं
भी शूरवीर हो । तात्पर्य है कि जन्मसे और अपनी प्रकृतिसे भी यह नपुंसकता तुम्हारेमें
सर्वथा अनुचित है । ‘परन्तप’‒तुम स्वयं ‘परन्तप’
हो अर्थात् शत्रुओंको तपानेवाले,
भगानेवाले हो, तो क्या तुम इस समय युद्धसे विमुख होकर अपने शत्रुओंको हर्षित
करोगे
? ‘क्षुद्रं
हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ’‒यहाँ ‘क्षुद्रम्’ पदके दो अर्थ होते हैं‒(१) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छताको प्राप्त करानेवाली है अर्थात्
मुक्ति,
स्वर्ग अथवा कीर्तिको देनेवाली नहीं है । अगर तुम इस तुच्छताका
त्याग नहीं करोगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे; और (२) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छ चीज है । तुम्हारे-जैसे शूरवीरके
लिये ऐसी तुच्छ चीजका त्याग करना कोई कठिन काम नहीं है । तुम जो ऐसा मानते हो कि मैं धर्मात्मा हूँ और युद्धरूपी पाप
नहीं करना चाहता, तो यह तुम्हारे हृदयकी दुर्बलता है,
कमजोरी है । इसका त्याग करके तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ अर्थात्
अपने प्राप्त कर्तव्यका पालन करो । यहाँ अर्जुनके सामने युद्धरूप कर्तव्य-कर्म है । इसलिये भगवान्
कहते हैं कि ‘उठो,
खड़े हो जाओ और युद्धरूप कर्तव्यका पालन करो’
। भगवान्के मनमें अर्जुनके कर्तव्यके विषयमें जरा-सा भी सन्देह
नहीं है । वे जानते हैं कि सभी दृष्टियोंसे अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है
। अतः अर्जुनकी थोथी युक्तियोंकी परवाह न करके उनको अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये
चट आज्ञा देते हैं कि पूरी तैयारीके साथ युद्ध करनेके लिये खड़े हो जाओ ।
परिशिष्ट भाव‒इस बातका विस्तार भगवान्ने आगे इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्लोकतक
किया है । രരരരരരരരരര |