।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्धभगवान्‌ने अर्जुनके प्रति कौन-से वचन कहे इसे आगेके दो श्‍लोकोंमें कहते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒२-३ श्‍लोकतक‒भगवान्‌द्वारा विषादका अनौचित्य बताकर अर्जुनको युद्धके लिये आज्ञा देना ।

श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।

       अनार्यजुष्‍टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन         ॥ २ ॥

अर्थ‒श्रीभगवान् बोलेहे अर्जुन ! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्‍त हुई, (जिसका कि) श्रेष्‍ठ पुरुष सेवन नहीं करते, (जो) स्वर्गको देनेवाली नहीं है (और) कीर्ति करनेवाली भी नहीं है ।

१.यहाँ भगवान्पदमें भगशब्दमें जो मतुप्प्रत्यय किया गया है, वह नित्ययोगमें किया गया है; क्योंकि समग्र ऐश्‍वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्यये छहों भगभगवान्‌में नित्य रहते हैं ।

अर्जुन = हे अर्जुन !

कुतः = कहाँसे

विषमे = इस विषम अवसरपर

समुपस्थितम् = प्राप्‍त हुई, (जिसका कि)

त्वा = तुम्हें

अनार्यजुष्‍टम् = श्रेष्‍ठ पुरुष सेवन नहीं करते,

इदम् = यह

अस्वर्ग्यम् = (जो) स्वर्गको देनेवाली नहीं है (और)

कश्मलम् = कायरता

अकीर्तिकरम् = कीर्ति करनेवाली भी नहीं है ।

व्याख्याअर्जुनयह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तुम स्वच्छ, निर्मल अन्तःकरणवाले हो । अतः तुम्हारे स्वभावमें कालुष्यकायरताका आना बिलकुल विरुद्ध बात है । फिर यह तुम्हारेमें कैसे आ गयी ?

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्भगवान् आश्‍चर्य प्रकट करते हुए अर्जुनसे कहते हैं कि ऐसे युद्धके मौकेपर तो तुम्हारेमें शूरवीरता, उत्साह आना चाहिये था, पर इस बेमौकेपर तुम्हारेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी !

आश्‍चर्य दो तरहसे होता हैअपने न जाननेके कारण और दूसरेको चेतानेके लिये । भगवान्‌का यहाँ जो आश्‍चर्यपूर्वक बोलना है, वह केवल अर्जुनको चेतानेके लिये ही है, जिससे अर्जुनका ध्यान अपने कर्तव्यपर चला जाय ।

कुतः कहनेका तात्पर्य यह है कि मूलमें यह कायरतारूपी दोष तुम्हारेमें (स्वयंमें) नहीं है । यह तो आगन्तुक दोष है, जो सदा रहनेवाला नहीं है ।

समुपस्थितम् कहनेका तात्पर्य है कि यह कायरता केवल तुम्हारे भावोंमें और वचनोंमें ही नहीं आयी है; किन्तु तुम्हारी क्रियाओंमें भी आ गयी है । यह तुम्हारेपर अच्छी तरहसे छा गयी है, जिसके कारण तुम धनुष-बाण छोड़कर रथके मध्यभागमें बैठ गये हो ।

अनार्यजुष्‍टम्

.‘अनार्यजुष्‍टम्पदमें जो नञ्समास है, वह आर्यैर्जुष्‍टमार्यजुष्‍टम्’‒इस तृतीया समासके बाद ही करना चाहिये; जैसे‘न आर्यजुष्‍टम् अनार्यजुष्‍टम् ।अगर नञ्समास तृतीया समासके पहले किया जाय कि न आर्या अनार्याः अनार्यैर्जुष्‍टमनार्यजुष्‍टम्तो यहाँ यह कहना बनता ही नहीं; क्योंकि अनार्य पुरूषोंके द्वारा जिसका सेवन किया जाता है, वह दूसरोंके लिये आदर्श नहीं होता ।

समझदार श्रेष्‍ठ मनुष्योंमें जो भाव पैदा होते हैं, वे अपने कल्याणके उद्‌देश्यको लेकर ही होते हैं । इसलिये श्‍लोकके उत्तरार्धमें भगवान् सबसे पहले उपर्युक्त पद देकर कहते हैं कि तुम्हारेमें जो कायरता आयी है, उस कायरताको श्रेष्‍ठ पुरुष स्वीकार नहीं करते । कारण कि तुम्हारी इस कायरतामें अपने कल्याणकी बात बिलकुल नहीं है । कल्याण चाहनेवाले श्रेष्‍ठ मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंमें अपने कल्याणका ही उद्‌देश्य रखते हैं । उनमें अपने कर्तव्यके प्रति कायरता उत्पन्‍न नहीं होती । परिस्थितिके अनुसार उनको जो कर्तव्य प्राप्‍त हो जाता है, उसको वे कल्याणप्राप्‍तिके उद्‌देश्यसे उत्साह और तत्परतापूर्वक सांगोपांग करते हैं । वे तुम्हारे-जैसे कायर होकर युद्धसे या अन्य किसी कर्तव्य-कर्मसे उपरत नहीं होते । अतः युद्ध-रूपसे प्राप्‍त कर्तव्य-कर्मसे उपरत होना तुम्हारे लिये कल्याणकारक नहीं है ।

अस्वर्ग्यम्कल्याणकी बात सामने न रखकर अगर सांसारिक दृष्‍टिसे भी देखा जाय, तो संसारमें स्वर्गलोक ऊँचा है । परन्तु तुम्हारी यह कायरता स्वर्गको देनेवाली भी नहीं है अर्थात् कायरतापूर्वक युद्धसे निवृत्त होनेका फल स्वर्गकी प्राप्‍ति भी नहीं हो सकता ।

अकीर्तिकरम्अगर स्वर्गप्राप्‍तिका भी लक्ष्य न हो, तो अच्छा माना जानेवाला पुरुष वही काम करता है, जिससे संसारमें कीर्ति हो । परन्तु तुम्हारी यह जो कायरता है, यह इस लोकमें भी कीर्ति (यश) देनेवाली नहीं है, प्रत्युत अपकीर्ति (अपयश) देनेवाली है । अतः तुम्हारेमें कायरताका आना सर्वथा ही अनुचित है ।

भगवान्‌ने यहाँ अनार्यजुष्‍टम्अस्वर्ग्यम् और अकीर्तिकरम्ऐसा क्रम देकर तीन प्रकारके मनुष्य बताये हैं(१) जो विचारशील मनुष्य होते हैं, वे केवल अपना कल्याण ही चाहते हैं । उनका ध्येय, उद्‌देश्य केवल कल्याणका ही होता है । (२) जो पुण्यात्मा मनुष्य होते हैं, वे शुभ-कर्मोंके द्वारा स्वर्गकी प्राप्‍ति चाहते हैं । वे स्वर्गको ही श्रेष्‍ठ मानकर उसकी प्राप्‍तिका ही उद्‌देश्य रखते हैं । (३) जो साधारण मनुष्य होते हैं, वे संसारको ही आदर देते हैं । इसलिये वे संसारमें अपनी कीर्ति चाहते हैं और उस कीर्तिको ही अपना ध्येय मानते हैं ।

उपर्युक्त तीनों पद देकर भगवान् अर्जुनको सावधान करते हैं कि तुम्हारा जो यह युद्ध न करनेका निश्‍चय है, यह विचारशील और पुण्यात्मा मनुष्योंके ध्येयकल्याण और स्वर्गको प्राप्‍त करानेवाला भी नहीं है, तथा साधारण मनुष्योंके ध्येयकीर्तिको प्राप्‍त करानेवाला भी नहीं है । अतः मोहके कारण तुम्हारा युद्ध न करनेका निश्‍चय बहुत ही तुच्छ है, जो कि तुम्हारा पतन करनेवाला, तुम्हें नरकोंमें ले जानेवाला और तुम्हारी अपकीर्ति करनेवाला होगा ।

രരരരരരരരരര