।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धअबतक देह-देहीका जो विवेचन हुआ है, उसीको भगवान् दूसरे शब्दोंसे आगेके तीन श्‍लोकोंमें कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयसत् और असत्‌की परिभाषा ।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

         उभयोरपि दृष्‍टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥

अर्थ‒असत्‌का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है । तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही तत्त्व देखा अर्थात् अनुभव किया है ।

असतः = असत्‌का तो

तत्त्वदर्शिभिः = तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने

भावः = भाव (सत्ता)

अनयोः = इन

, विद्यते = विद्यमान नहीं है

उभयोः = दोनोंका

तु = और

अपि = ही

सतः = सत्‌का

अन्तः = तत्त्व

अभावः = अभाव

दृष्‍टः = देखा अर्थात् अनुभव किया है ।

, विद्यते = विद्यमान नहीं है ।

 

व्याख्या[ यहाँ (पूर्वार्धमें) भगवान्‌ने भू सत्तायाम् (भावः, अभावः), ‘अस् भुवि (असतः, सतः) और विद् सत्तायाम् (विद्यते)इन तीन सत्तावाचक धातुओंका प्रयोग किया है । इन तीनोंके प्रयोगका तात्पर्य नित्य-तत्त्वकी ओर लक्ष्य करानेमें ही है । ]

नासतो विद्यते भावःशरीर उत्पत्तिके पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है । तात्पर्य है कि यह शरीर भूत, भविष्य और वर्तमानइन तीनों कालोंमें कभी भावरूपसे नहीं रहता । अतः यह असत्‌ है । इसी तरहसे इस संसारका भी भाव नहीं है, यह भी असत्‌ है । यह शरीर तो संसारका एक छोटा-सा नमूना है; इसलिये शरीरके परिवर्तनसे संसारमात्रके परिवर्तनका अनुभव होता है कि इस संसारका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है ।

संसारमात्र कालरूपी अग्‍निमें लकड़ीकी तरह निरन्तर जल रहा है । लकड़ीके जलनेपर तो कोयला और राख बची रहती है, पर संसारको कालरूपी अग्‍नि ऐसी विलक्षण रीतिसे जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता । वह संसारका अभाव-ही-अभाव कर देती है । इसलिये कहा गया है कि असत्‌की सत्ता नहीं है ।

नाभावो विद्यते सतःजो सत्‌ वस्तु है, उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्‍न नहीं हुआ था, तब भी देही था, देह नष्‍ट होनेपर भी देही रहेगा और वर्तमानमें देहके परिवर्तनशील होनेपर भी देही उसमें ज्यों-का-त्यों ही रहता है । इसी रीतिसे जब संसार उत्पन्‍न नहीं हुआ था, उस समय भी परमात्मतत्त्व था, संसारका अभाव होनेपर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमानमें संसारके परिवर्तनशील होनेपर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्यों-का-त्यों ही है ।

मार्मिक बात

संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं, दूसरी बार नहीं । कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है; अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी, दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती, जैसेसिनेमा देखते समय परदेपर दृश्य स्थिर दीखता है; पर वास्तवमें उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । मशीनपर फिल्म तेजीसे घूमनेके कारण वह परिवर्तन इतनी तेजीसे होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं

१.नित्यदा ह्यंग भूतानि भवन्ति न भवन्ति च ।

    कालेनालक्ष्यवेगेन   सूक्ष्मत्वात्तन्‍न   दृश्यते ॥

(श्रीमद्भा ११ । २२ । ४२)

यद्यपि प्रतिक्षण ही शरीरोंकी उत्पत्ति और नाश होता रहता है, तथापि कालकी गति अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण उनका प्रतिक्षण उत्पन्‍न और नष्‍ट होना दिखायी नहीं देता ।

 इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता । कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैंअनुभव करते हैं, वे करण भी संसारके ही हैं । अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है । जो शरीर-संसारसे सर्वथा सम्बन्धरहित है, उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं ! तात्पर्य यह है कि स्वरूपमें संसारकी प्रतीति नहीं है । संसारके सम्बन्धसे ही संसारकी प्रतीति होती है । इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपका संसारसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं ।

दूसरी बात, संसार (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि)-की सहायताके बिना चेतन-स्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता । इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसारमें ही है, स्वरूपमें नहीं । स्वरूपका क्रियासे कोई सम्बन्ध है ही नहीं ।

संसारका स्वरूप हैक्रिया और पदार्थ । जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है, तब यह सिद्ध हो गया कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है । केवल परमात्मतत्त्वका ही भाव (सत्ता) है, जो निर्लिप्‍तरूपसे सबका प्रकाशक और आधार है ।

उभयोरपि दृष्‍टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिःइन दोनोंके अर्थात् सत्‌-असत्‌ , देही-देहके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंने इनका तत्त्व देखा है, इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत्‌-तत्त्व ही विद्यमान है ।

असत्‌ वस्तुका तत्त्व भी सत्‌ है और सत्‌ वस्तुका तत्त्व भी सत्‌ है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक सत्‌ही है, दोनोंका तत्त्व भावरूपसे एक ही है । अतः सत्‌ और असत्‌इन दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा जाननेमें आनेवाला एक सत्‌-तत्त्व ही है । असत्‌की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह सत्ता भी वास्तवमें सत्‌की ही है । सत्‌की सत्तासे ही असत्‌ सत्तावान् प्रतीत होता है । इसी सत्‌को परा प्रकृति (गीता ७ । ५), ‘क्षेत्रज्ञ (गीता १३ । १-२), ‘पुरुष (गीता १३ । १९) और अक्षर (गीता १५ । १६) कहा गया है; तथा असत्‌को अपरा प्रकृति, ‘क्षेत्र, ‘प्रकृति और क्षर कहा गया है ।

अर्जुन भी शरीरोंको लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करनेसे ये सब मर जायँगे । इसपर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करनेसे ये नहीं मरेंगे ? असत्‌ तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है । परन्तु इसमें जो सत्‌-रूपसे है, उसका कभी अभाव नहीं होगा । इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है ।

ग्यारहवें श्‍लोकमें आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं, उन दोनोंके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते । बारहवें-तेरहवें श्‍लोकोंमें देहीकी नित्यताका वर्णन है और उसमें धीर शब्द आया है । चौदहवें-पंद्रहवें श्‍लोकोंमें संसारकी अनित्यताका वर्णन आया है, तो उसमें भी धीर शब्द आया है । ऐसे ही यहाँ (सोलहवें श्‍लोकमें) सत्‌-असत्‌का विवेचन आया है, तो इसमें तत्त्वदर्शी शब्द आया है । इन श्‍लोकोंमें पण्डित, ‘धीर और तत्त्वदर्शी पद देनेका तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं, समझदार होते हैं, उनको शोक नहीं होता । अगर शोक होता है, तो वे विवेकी नहीं हैं, समझदार नहीं हैं ।

२.‘नानुशोचन्ति पण्डिताः’ (२ । ११ ), ‘धीरस्तत्र न मुह्यति’ (२ । १३ ), ‘समदुःखसुखं धीरम्’ (२ । १५ )‒इन तीन जगह जिनको पण्डितऔर धीरकहा है, उन्हींको यहाँ तत्त्वदर्शीकहा गया है ।

 

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