।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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परिशिष्‍ट भावसत्तामात्र सत्‌है और सत्ताके सिवाय जो कुछ भी प्रकृति और प्रकृतिका कार्य (क्रिया और पदार्थ) है, वह असत्‌अर्थात् परिवर्तनशील है । जिन महापुरुषोंने सत्‌ और असत्‌दोनोंका तत्त्व देखा है अर्थात् जिनको सत्तामात्रमें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो गया है, उनकी दृष्‍टि (अनुभव)-में असत्‌की सत्ता विद्यमान है ही नहीं और सत्‌का अभाव विद्यमान है ही नहीं अर्थात् सत्तामात्र (सत्‌-तत्त्व)-के सिवाय कुछ भी नहीं है ।

भगवान्‌ने चौदहवें-पन्द्रहवें श्‍लोकोंमें शरीरकी अनित्यताका वर्णन किया था, उसको यहाँ नासतो विद्यते भावः पदोंसे कहा है और बारहवें-तेरहवें श्‍लोकोंमें शरीरीकी नित्यताका वर्णन किया था, उसको यहाँ नाभावो विद्यते सतः पदोंसे कहा है ।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतःइन सोलह अक्षरोंमें सम्पूर्ण वेदों, पुराणों, शास्‍त्रोंका तात्पर्य भरा हुआ है ! असत्‌ और सत्‌इन दोनोंको ही प्रकृति और पुरुष, क्षर और अक्षर, शरीर और शरीरी, अनित्य और नित्य, नाशवान् और अविनाशी आदि अनेक नामोंसे कहा गया है । देखने, सुनने, समझने, चिन्तन करने, निश्‍चय करने आदिमें जो कुछ भी आता है, वह सब असत्‌है । जिसके द्वारा देखते, सुनते, चिन्तन आदि करते हैं, वह भी असत्‌है और दीखनेवाला भी असत्‌है ।

इस श्‍लोकार्ध (सोलह अक्षरों)-में तीन धातुओंका प्रयोग हुआ है

(१) भू सत्तायाम् जैसे अभावः और भावः

(२) अस् भुविजैसे, असतः और सतः

(३) विद् सत्तायाम्जैसे, विद्यते और न विद्यते

यद्यपि इन तीनों धातुओंका मूल अर्थ एक सत्ताही है, तथापि सूक्ष्मरूपसे ये तीनों अपना स्वतन्त्र अर्थ भी रखते हैं; जैसेभू धातुका अर्थ उत्पत्तिहै, अस् धातुका अर्थ सत्ता (होनापन) है और विद् धातुका अर्थ विद्यमानता (वर्तमानकी सत्ता) है ।

नासतो विद्यते भावः पदोंका अर्थ हैअसतः भावः न विद्यते अर्थात् असत्‌की सत्ता विद्यमान नहीं है, प्रत्युत असत्‌का अभाव ही विद्यमान है; क्योंकि इसका निरन्तर अभाव (परिवर्तन) होता ही रहता है । असत्‌ वर्तमान नहीं है । असत्‌ उपस्थित नहीं है । असत्‌ प्राप्‍त नहीं है । असत्‌ मिला हुआ नहीं है । असत्‌ मौजूद नहीं है । असत्‌ कायम नहीं है । जो वस्तु उत्पन्‍न होती है, उसका नाश अवश्य होता हैयह नियम है । उत्पन्‍न होते ही तत्काल उस वस्तुका नाश शुरू हो जाता है । उसका नाश इतनी तेजीसे होता है कि उसको दो बार कोई देख ही नहीं सकता अर्थात् उसको एक बार देखनेपर फिर दुबारा उसी स्थितिमें नहीं देखा जा सकता । यह सिद्धान्त है कि जिस वस्तुका किसी भी क्षण अभाव है, उसका सदा अभाव ही है । अतः संसारका सदा ही अभाव है । संसारको कितनी ही सत्ता दें, कितना ही महत्त्व दें, पर वास्तवमें वह विद्यमान है ही नहीं । असत्‌ प्राप्‍त है ही नहीं, कभी प्राप्‍त हुआ ही नहीं, कभी प्राप्‍त होगा ही नहीं । असत्‌का प्राप्‍त होना सम्भव ही नहीं है ।

नाभावो विद्यते सतः पदोंका अर्थ हैसतः अभावः न विद्यते अर्थात् सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है, प्रत्युत सत्‌का भाव ही विद्यमान है; क्योंकि इसका कभी अभाव (परिवर्तन) होता ही नहीं । जिसका अभाव हो जाय, उसको सत्‌ कहते ही नहीं । सत्‌की सत्ता निरन्तर विद्यमान है । सत्‌ निरन्तर वर्तमान है । सत्‌ निरन्तर उपस्थित है । सत्‌ निरन्तर प्राप्‍त है । सत्‌ निरन्तर मिला हुआ है । सत्‌ निरन्तर मौजूद है । सत्‌ निरन्तर कायम है । किसी भी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें सत्‌का अभाव नहीं होता । कारण कि देश, काल, वस्तु आदि तो असत्‌ (अभावरूप अर्थात् निरन्तर परिवर्तनशील) है, पर सत्‌ सदा ज्यों-का-त्यों रहता है । उसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई कमी नहीं आती । अतः सत्‌का सदा ही भाव है । परमात्मतत्त्वको कितना ही अस्वीकार करें, उसकी कितनी ही उपेक्षा करें, उससे कितना ही विमुख हो जायँ, उसका कितना ही तिरस्कार करें, उसका कितनी ही युक्तियोंसे खण्डन करें, पर वास्तवमें उसका अभाव विद्यमान है ही नहीं । सत्‌का अभाव होना सम्भव ही नहीं है । सत्‌का अभाव कभी कोई कर सकता ही नहीं (गीतादूसरे अध्यायका सत्रहवाँ श्‍लोक) ।

उभयोरपि दृष्‍टःतत्त्वदर्शी महापुरुषोंने सत्‌-तत्त्वको उत्पन्‍न नहीं किया है, प्रत्युत देखा है अर्थात् अनुभव किया है । तात्पर्य है कि असत्‌का अभाव और सत्‌का भावदोनोंके तत्त्व (निष्कर्ष)-को जाननेवाले जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुष एक सत्‌-तत्त्वको ही देखते हैं अर्थात् स्वतः-स्वाभाविक एक हैका ही अनुभव करते हैं । असत्‌का तत्त्व भी सत्‌ है और सत्‌का तत्त्व भी सत्‌ हैऐसा जान लेनेपर उन महापुरुषोंकी दृष्‍टिमें एक सत्‌-तत्त्व हैके सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं ।

असत्‌की सत्ता विद्यमान न रहनेसे उसका अभाव और सत्‌का अभाव विद्यमान न रहनेसे उसका भाव सिद्ध हुआ । निष्कर्ष यह निकला कि असत्‌ है ही नहीं, प्रत्युत सत्‌-ही-सत्‌ है । उस सत्‌-तत्त्वमें देह और देहीका विभाग नहीं है ।

जबतक असत्‌की सत्ता है, तबतक विवेक है । असत्‌की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है । उभयोरपि दृष्‍टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिःइसमें उभयोरपि में विवेक है, अन्तः में तत्त्वज्ञान है और दृष्‍टः में अनुभव है अर्थात् विवेक तत्त्वज्ञानमें परिणत हो गया और सत्तामात्र ही शेष रह गयी । एक सत्ताके सिवाय कुछ नहीं हैयह ज्ञानमार्गकी सर्वोपरि बात है ।

असत्‌की सत्ता नहीं हैयह भी सत्य है और सत्‌का अभाव नहीं हैयह भी सत्य है । सत्यको स्वीकार करना साधकका काम है । साधकको अनुभव हो अथवा न हो, उसको तो सत्यको स्वीकार करना है । हैको स्वीकार करना है और नहींको अस्वीकार करना हैयही वेदान्त है, वेदोंका खास निष्कर्ष है ।

संसारमें भाव और अभावदोनों दीखते हुए भी अभावमुख्य रहता है । परमात्मामें भाव और अभावदोनों दीखते हुए भी भावमुख्य रहता है । संसारमें अभावके अन्तर्गत भाव-अभाव हैं और परमात्मामें भावके अन्तर्गत भाव-अभाव हैं । दूसरे शब्दोंमें, संसारमें नित्यवियोगके अन्तर्गत संयोग-वियोग हैं और परमात्मामें नित्ययोगके अन्तर्गत योग-वियोग (मिलन-विरह) हैं । अतः संसारमें अभाव ही रहा और परमात्मामें भाव ही रहा ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒दो विभाग हैं‒चेतन-विभाग (‘है’) और जड़-विभाग (‘नहीं’) । परमात्मा तथा सम्पूर्ण जीव चेतन-विभागमें हैं और संसार-शरीर जड़-विभागमें हैं । जड़ और चेतन‒दोनोंका स्वभाव परस्परविरुद्ध है । यह नियम है कि परस्परविरुद्ध विश्‍वास एकसाथ नहीं रह सकते । इसलिये ‘है’ पर विश्‍वास होते ही ‘नहीं’ का विश्‍वास निर्जीव हो जाता है और ‘नहीं’ से विश्‍वास उठते ही ‘है’ का विश्‍वास सजीव हो जाता है । सच्‍चा साधक एक ‘है’ (सत्-तत्त्व)-के सिवाय अन्य (असत्)-की सत्ता स्वीकार ही नहीं करता । अन्यकी सत्ता स्वीकार न करनेपर साधकमें स्वतः ‘है’ की स्मृति जाग्रत् हो जाती है । ‘है’ की स्मृतिसे साधककी साध्यके साथ अभिन्‍नता हो जाती है ।

कोई मनुष्य ‘नहीं’ को कितनी ही दृढ़तासे स्वीकार करे, उसकी निवृत्ति होती ही है, प्राप्‍ति होती ही नहीं । परन्तु ‘है’ को कितना ही अस्वीकार करे, उसकी प्राप्‍ति ही होती है । उसकी विस्मृति तो हो सकती है, पर निवृत्ति होती ही नहीं । अतः एक सत्तामात्र ‘है’ के सिवाय कुछ नहीं है‒यह सार बात है, जिसका महापुरुषोंने अनुभव किया है । संसारमें अभाव ही मुख्य है । इसके भावमें भी अभाव है, अभावमें भी अभाव है । परन्तु परमात्मामें भाव ही मुख्य है । उनके अभावमें भी भाव है, भावमें भी भाव है । संसार दीखे या न दीखे, मिले या न मिले, उसका ‘वियोग’ ही मुख्य है । परमात्मा दीखें या न दीखें, मिलें या न मिलें, उनका ‘योग’ ही मुख्य है । संसारका नित्यवियोग है । परमात्माका नित्ययोग है ।

 

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