Listen सम्बन्ध‒सत् और असत् क्या है‒इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं । सूक्ष्म विषय‒१७-१८ श्लोक‒सत्-असत्की
व्याख्या और युद्ध करनेके लिये आज्ञा । अविनाशि
तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य
न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥ अर्थ‒अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है । इस अविनाशीका विनाश कोई
भी नहीं कर सकता ।
व्याख्या‒‘अविनाशि तु तद्विद्धि’‒पूर्वश्लोकमें जो सत्-असत्की बात कही थी,
उसमेंसे पहले ‘सत्’
की व्याख्या करनेके लिये यहाँ ‘तु’ पद आया है । ‘उस अविनाशी तत्त्वको तू समझ’‒ऐसा कहकर भगवान्ने उस तत्त्वको परोक्ष बताया है । परोक्ष बतानेमें
तात्पर्य है कि इदंतासे दीखनेवाले इस सम्पूर्ण संसारमें वह परोक्ष तत्त्व ही व्याप्त
है,
परिपूर्ण है । वास्तवमें जो परिपूर्ण है,
वही ‘है’ और जो सामने संसार दीख रहा है,
यह ‘नहीं’ है । यहाँ ‘तत्’
पदसे सत्-तत्त्वको परोक्ष रीतिसे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है
कि वह तत्त्व बहुत दूर है; किन्तु वह इन्द्रियों और अन्तःकरणका विषय नहीं है,
इसलिये उसको परोक्ष रीतिसे कहा गया है । ‘येन
सर्वमिदं ततम्’१ १ .‘येन सर्वमिदं ततम्’‒ये पद गीतामें तीन बार आये हैं । उनमेंसे यहाँ (२ । १७ में) ये पद शरीरीके लिये आये हैं कि इस शरीरीसे यह सम्पूर्ण संसार
व्याप्त है । यह बात सांख्ययोगकी दृष्टिसे कही गयी है । दूसरी बार ये पद आठवें अध्यायके
बाईसवें श्लोकमें आये हैं । वहाँ कहा गया है कि जिस ईश्वरसे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त
है, वह अनन्यभक्तिसे मिलता है । अतः भक्तिका वर्णन होनेसे
उपर्युक्त पद ईश्वरके विषयमें आये हैं । तीसरी बार ये पद अठारहवें अध्यायके छियालीसवें
श्लोकमें आये हैं । वहाँ कहा गया है कि जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उसका चारों वर्ण अपने-अपने कर्मोंद्वारा पूजन करें । यह वर्णन भी भक्तिकी दृष्टिसे
हुआ है । नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें राजविद्याका वर्णन करते
हुए भगवान्ने ‘मया ततमिद सर्वम्’ पदोंसे कहा है कि यह सम्पूर्ण संसार मेरेसे व्याप्त है । इस
प्रकार तीन जगह तो ‘येन’ पद देकर उस तत्त्वको परोक्षरूपसे कहा है और एक जगह ‘अस्मत्’ शब्द‒‘मया’ देकर स्वयं भगवान्ने अपरोक्षरूपसे अपनी बात कही है । ‒जिसको परोक्ष कहा है, उसीका वर्णन करते हैं कि यह सब-का-सब संसार उस नित्य-तत्त्वसे
व्याप्त है । जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें सोना, लोहेसे बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा,
मिट्टीसे बने हुए बर्तनोंमें मिट्टी और जलसे बनी हुई बर्फमें
जल ही व्याप्त (परिपूर्ण) है, ऐसे ही संसारमें वह सत्-तत्त्व ही व्याप्त है । अतः वास्तवमें
इस संसारमें वह सत्-तत्त्व ही जाननेयोग्य है । ‘विनाशमव्ययस्यास्य
न कश्चित्कर्तुमहर्ति’‒यह शरीरी अव्यय२ अर्थात् अविनाशी है । २.भगवान्ने गीतामें जगह-जगह शरीरीको भी अव्यय कहा है और अपनेको भी अव्यय कहा है । स्वरूपसे
दोनों अव्यय होनेपर भी भगवान् तो प्रकृतिको अपने वशमें करके (स्वतन्त्रतापूर्वक) प्रकट और अन्तर्धान होते हैं और यह शरीरी प्रकृतिके परवश होकर
जन्मता और मरता रहता है; क्योंकि इसने शरीरको अपना मान रखा है । इस अविनाशीका कोई विनाश कर ही नहीं सकता । परन्तु शरीर विनाशी
है‒क्योंकि वह नित्य-निरन्तर विनाशकी तरफ जा रहा है । अतः इस विनाशीके विनाशको कोई
रोक ही नहीं सकता । तू सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो ये नहीं मरेंगे,
पर वास्तवमें तेरे युद्ध करनेसे अथवा न करनेसे इस अविनाशी और
विनाशी तत्त्वमें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा अर्थात् अविनाशी तो रहेगा ही और विनाशीका नाश
होगा ही । यहाँ ‘अस्य’
पदसे सत्-तत्त्वको इदंतासे कहनेका तात्पर्य है कि प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरोंमें जो सत्ता दीखती है, वह
इसी सत्-तत्त्वकी ही है । ‘मेरा शरीर है और मैं शरीरधारी हूँ’‒ऐसा जो अपनी सत्ताका ज्ञान है,
उसीको लक्ष्य करके भगवान्ने यहाँ ‘अस्य’ पद दिया है । परिशिष्ट भाव‒व्यवहारमें हम कहते हैं कि ‘यह मनुष्य है, यह पशु है, यह वृक्ष है, यह मकान है’ आदि, तो इसमें ‘मनुष्य, पशु, वृक्ष, मकान’ आदि तो पहले भी नहीं थे, पीछे भी नहीं रहेंगे तथा वर्तमानमें भी प्रतिक्षण अभावमें जा
रहे हैं । परन्तु इनमें ‘है’ रूपसे जो सत्ता है, वह सदा ज्यों-की-त्यों है । तात्पर्य है कि ‘मनुष्य, पशु, वृक्ष, मकान’ आदि तो संसार (असत्) है और ‘है’ अविनाशी आत्मतत्त्व (सत्) है । इसलिये ‘मनुष्य, पशु, वृक्ष, मकान’ आदि तो अलग-अलग हुए, पर इन सबमें ‘है’ एक ही रहा । इसी तरह मैं मनुष्य हूँ,
मैं पशु हूँ, मैं देवता हूँ आदिमें शरीर तो अलग-अलग हुए पर
‘हूँ’ अथवा ‘है’ एक ही रहा । ‘येन
सर्वमिदं ततम्’‒ये पद यहाँ जीवात्माके लिये आये हैं और आठवें अध्यायके बाईसवें
श्लोकमें तथा अठारहवें अध्यायके छियालीसवें श्लोकमें यही पद परमात्माके लिये आये
हैं । इसका तात्पर्य है कि जीवात्माका सर्वव्यापक परमात्माके
साथ साधर्म्य है । अतः जैसे परमात्मा संसारसे असंग हैं, ऐसे
ही जीवात्मा भी शरीर-संसारसे स्वतः-स्वाभाविक असंग है‒‘असङ्गो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदा॰ ४ । ३ । १५), ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’ (गीता
१३ । २२) । जीवात्माकी स्थिति किसी एक शरीरमें नहीं है । वह किसी शरीरसे चिपका
हुआ नहीं है । परन्तु इस असंगताका अनुभव न होनेसे ही जन्म-मरण हो रहा है ।
गीता-प्रबोधनी
व्याख्या‒जिस सत्-तत्त्वका अभाव विद्यमान नहीं है, वही अविनाशी तत्त्व है, जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है ।
अविनाशी होनेके कारण तथा सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त होनेके कारण उसका कभी कोई नाश
कर सकता ही नहीं । नाश उसीका होता है, जो नाशवान् तथा एक देशमें
स्थित हो ।
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