।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धउन्‍नीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने बताया कि यह शरीरी न तो मारता है और न मरता ही है । इसमें मरनेका निषेध तो बीसवें श्‍लोकमें कर दिया, अब मारनेका निषेध करनेके लिये आगेका श्‍लोक कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयदेहीके अकर्तृत्वको जाननेकी महिमा ।

वेदाविनाशिनं  नित्यं  य  एनमजमव्ययम् ।

         कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥

अर्थ‒हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरीको अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?

पार्थ = हे पृथानन्दन !

वेद = जानता है,

यः = जो

सः = वह

पुरुषः = मनुष्य

कथम् = कैसे

एनम् = इस शरीरीको

कम् = किसको

अविनाशिनम् = अविनाशी,

हन्ति = मारे (और)

नित्यम् = नित्य,

कम् = (कैसे) किसको

अजम् = जन्मरहित (और)

घातयति = मरवाये

अव्ययम् = अव्यय

 

व्याख्यावेदाविनाशिनम्........घातयति हन्ति कम्’इस शरीरीका कभी नाश नहीं होता, इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरहकी कोई कमी नहीं आतीऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है, वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ? अर्थात् दूसरोंको मारने और मरवानेमें उस पुरुषकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । वह किसी क्रियाका न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है ।

यहाँ भगवान्‌ने शरीरीको अविनाशी, नित्य, अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारोंका निषेध किया है; जैसेअविनाशी कहकर मृत्युरूप विकारका, नित्य कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकारका, अज कहकर जन्म होना और जन्मके बाद होनेवाली सत्तारूप विकारका, तथा अव्यय कहकर क्षयरूप विकारका निषेध किया गया है । शरीरीमें किसी भी क्रियासे किंचिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता ।

अगर भगवान्‌को न हन्यते हन्यमाने शरीरे और कं घातयति हन्ति कम् इन पदोंमें शरीरीके कर्ता और कर्म बननेका ही निषेध करना था, तो फिर यहाँ करने-न-करनेकी बात न कहकर मरने-मारनेकी बात क्यों कही ? इसका उत्तर है कि युद्धका प्रसंग होनेसे यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धमें मारनेवाला नहीं बनता; क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है । जब शरीरी मारनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं बन सकता, तब यह मरनेवाला अर्थात् क्रियाका विषय (कर्म) भी कैसे बन सकता है ? तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रियाका कर्ता और कर्म नहीं बनता । अतः मरने-मारनेमें शोक नहीं करना चाहिये, प्रत्युत शास्‍त्रकी आज्ञाके अनुसार प्राप्‍त कर्तव्य-कर्मका पालन करना चाहिये ।

परिशिष्‍ट भावउत्पन्‍न होनेवाली वस्तु तो स्वतः मिटती है, उसको मिटाना नहीं पड़ता । पर जो वस्तु उत्पन्‍न नहीं होती, वह कभी मिटती ही नहीं । हमने चौरासी लाख शरीर धारण किये, पर कोई भी शरीर हमारे साथ नहीं रहा और हम किसी भी शरीरके साथ नहीं रहे; किन्तु हम ज्यों-के-त्यों अलग रहे । यह जाननेकी विवेकशक्ति उन शरीरोंमें नहीं थी, प्रत्युत इस मनुष्य-शरीरमें ही है । अगर हम इसको नहीं जानते तो भगवान्‌के दिये विवेकका निरादर करते हैं ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याशरीरकी किसी भी क्रियासे शरीरीमें किंचिन्मात्र भी कोई विकार उत्पन्‍न नहीं होता । अतः शरीरी किसी भी क्रियाका न तो कर्ता (तथा भोक्ता) बनता है, न कारयिता ही बनता है ।

 

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