May
28
।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपहले दृष्‍टान्तरूपसे शरीरीकी निर्विकारताका वर्णन करके अब आगेके तीन श्‍लोकोंमें उसीका प्रकारान्तरसे वर्णन करते हैं ।

सूक्ष्म विषय२३२५ श्‍लोकतकदेहीकी अविनाशिता, नित्यता और निर्विकारता वर्णन ।

नैनं छिन्दन्ति शस्‍त्राणि नैनं दहति पावकः ।

         न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥

अर्थ‒शस्‍त्र इस शरीरीको काट नहीं सकते, अग्‍नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती ।

शस्‍त्राणि = शस्‍त्र

आपः = जल

एनम् = इस (शरीरी)-को

एनम् = इसको

, छिन्दन्ति = काट नहीं सकते,

, क्लेदयन्ति = गीला नहीं कर सकता

पावकः = अग्‍नि

च = और

एनम् = इसको

मारुतः = वायु (इसको)

, दहति = जला नहीं सकती,

,शोषयति = सुखा नहीं सकती ।

व्याख्यानैनं छिन्दन्ति शस्‍त्राणिइस शरीरीको शस्‍त्र नहीं काट सकते; क्योंकि ये प्राकृत शस्‍त्र वहाँतक पहुँच ही नहीं सकते ।

जितने भी शस्‍त्र हैं, वे सभी पृथ्वी-तत्त्वसे उत्पन्‍न होते हैं । यह पृथ्वी-तत्त्व इस शरीरीमें किसी तरहका कोई विकार नहीं पैदा कर सकता । इतना ही नहीं, पृथ्वी-तत्त्व इस शरीरीतक पहुँच ही नहीं सकता, फिर विकृति करनेकी बात तो दूर ही रही !

नैनं दहति पावकःअग्‍नि इस शरीरीको जला नहीं सकती; क्योंकि अग्‍नि वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती । जब वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती, तब उसके द्वारा जलाना कैसे सम्भव हो सकता है ? तात्पर्य है कि अग्‍नि-तत्त्व इस शरीरीमें कभी किसी तरहका विकार उत्पन्‍न कर ही नहीं सकता ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापःजल इसको गीला नहीं कर सकता; क्योंकि जल वहाँतक पहुँच ही नहीं सकता । तात्पर्य है कि जल-तत्त्व इस शरीरीमें किसी प्रकारका विकार पैदा नहीं कर सकता ।

न शोषयति मारुतःवायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात् वायुमें इस शरीरीको सुखानेकी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि वायु वहाँतक पहुँचती ही नहीं । तात्पर्य है कि वायु-तत्त्व इस शरीरीमें किसी तरहकी विकृति पैदा नहीं कर सकता ।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाशये पाँच महाभूत कहलाते हैं । भगवान्‌ने इनमेंसे चार ही महाभूतोंकी बात कही है कि ये पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस शरीरीमें किसी तरहकी विकृति नहीं कर सकते; परन्तु पाँचवें महाभूत आकाशकी कोई चर्चा ही नहीं की है । इसका कारण यह है कि आकाशमें कोई भी क्रिया करनेकी शक्ति नहीं है । क्रिया (विकृति) करनेकी शक्ति तो इन चार महाभूतोंमें ही है । आकाश तो इन सबको अवकाशमात्र देता है ।

पृथ्वी, जल, तेज और वायुये चारों तत्त्व आकाशसे ही उत्पन्‍न होते हैं, पर वे अपने कारणभूत आकाशमें भी किसी तरहका विकार पैदा नहीं कर सकते अर्थात् पृथ्वी आकाशका छेदन नहीं कर सकती, जल गीला नहीं कर सकता, अग्‍नि जला नहीं सकती और वायु सुखा नहीं सकती । जब ये चारों तत्त्व अपने कारणभूत आकाशको, आकाशके कारणभूत महत्तत्त्वको और महत्तत्त्वके कारणभूत प्रकृतिको भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकते, तब प्रकृतिसे सर्वथा अतीत शरीरीतक ये पहुँच ही कैसे सकते हैं ? इन गुणयुक्त पदार्थोंकी उस निर्गुण-तत्त्वमें पहुँच ही कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती (गीतातेरहवें अध्यायका इकतीसवाँ श्‍लोक) ।

शरीरी नित्य-तत्त्व है । पृथ्वी आदि चारों तत्त्वोंको इसीसे सत्ता-स्फूर्ति मिलती है । अतः जिससे इन तत्त्वोंको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है, उसको ये कैसे विकृत कर सकते हैं ? यह शरीरी सर्वव्यापक है और पृथ्वी आदि चारों तत्त्व व्याप्य हैं अर्थात् शरीरीके अन्तर्गत हैं । अतः व्याप्य वस्तु व्यापकको कैसे नुकसान पहुँचा सकती है ? उसको नुकसान पहुँचाना सम्भव ही नहीं है ।

यहाँ युद्धका प्रसंग है । ये सब सम्बन्धी मर जायँगे’ इस बातको लेकर अर्जुन शोक कर रहे हैं । अतः भगवान् कहते हैं कि ये कैसे मर जायँगे ? क्योंकि वहाँतक अस्‍त्र-शस्‍त्रोंकी क्रिया पहुँचती ही नहीं अर्थात् शस्‍त्रके द्वारा शरीर कट जानेपर भी शरीरी नहीं कटता, अग्न्यास्‍त्रके द्वारा शरीर जल जानेपर भी शरीरी नहीं जलता, वरुणास्‍त्रके द्वारा शरीर गल जानेपर भी शरीरी नहीं गलता और वायव्यास्‍त्रके द्वारा शरीर सूख जानेपर भी शरीरी नहीं सूखता । तात्पर्य है कि अस्‍त्र-शस्‍त्रोंके द्वारा शरीर मर जानेपर भी शरीरी नहीं मरता, प्रत्युत ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है । अतः इसको लेकर शोक करना तेरी बिलकुल ही बेसमझी है ।

परिशिष्‍ट भावहम कहते हैं कि शरीर हैतो परिवर्तन शरीरमें होता है, ‘है (शरीरी) में नहीं होता । जैसे, ‘काठ हैतो विकृति काठमें आती है, ‘हैमें नहीं आती । काठ कटता है, ‘हैनहीं कटता । काठ जलता है, ‘हैनहीं जलता । काठ गीला होता है, ‘हैगीला नहीं होता । काठ सूखता है, ‘हैनहीं सूखता । काठ कभी एकरूप रहता ही नहीं और हैकभी अनेकरूप होता ही नहीं ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यापृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार‒यह अपरा प्रकृति (जड़-विभाग) है और स्वरूप परा प्रकृति (चेतन-विभाग) है (गीता ७ । ४-५) । अपरा प्रकृति परा प्रकृतितक पहुँच ही नहीं सकती । जड़ पदार्थ चेतन-तत्त्वतक कैसे पहुँच सकता है ? अन्धकार सूर्यतक कैसे पहुँच सकता है ? इसलिये जड़ वस्तु चेतन शरीरीमें किंचिन्मात्र कोई विकार उत्पन्‍न नहीं कर सकती ।

 

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