।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०८०, सोमवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सूक्ष्म विषय‒सिद्ध कर्मयोगीका किसीसे भी कोई प्रयोजन न होनेका कथन ।

नैव  तस्य कृतेनार्थो  नाकृतेनेह कश्‍चन ।

         न चास्य सर्वभूतेषु कश्‍चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ॥

अर्थ‒उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुप)-का इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता ।

तस्य = उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुष)-का

एव = ही (कोई प्रयोजन रहता है)

इह = इस संसारमें

= तथा

न = न तो

सर्वभूतेषु = सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ)

कृतेन = कर्म करनेसे

अस्य = इसका

कश्‍चन = कोई

कश्‍चित् = किंचिन्मात्र भी

अर्थः = प्रयोजन (रहता है और)

अर्थव्यपाश्रयः =स्वार्थका सम्बन्ध

न = न

न = नहीं रहता ।

अकृतेन = कर्म न करनेसे

 

व्याख्यानैव तस्य कृतेनार्थः’प्रत्येक मनुष्यकी कुछ-न-कुछ करनेकी प्रवृत्ति होती है । जबतक यह करनेकी प्रवृत्ति किसी सांसारिक वस्तुकी प्राप्‍तिके लिये होती है तबतक उसका अपने लिये करना’ शेष रहता ही है । अपने लिये कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही मनुष्य बँधता है । उस इच्छाकी निवृत्तिके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकता है ।

कर्म दो प्रकारसे किये जाते हैं । कामना-पूर्तिके लिये और कामना-निवृत्तिके लिये । साधारण मनुष्य तो कामनापूर्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी कामना-निवृत्तिके लिये कर्म करता है । इसलिये कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें कोई भी कामना न रहनेके कारण उसका किसी भी कर्तव्यसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता । उसके द्वारा निःस्वार्थ-भावसे समस्त सृष्‍टिके हितके लिये स्वतः कर्तव्य-कर्म होते हैं ।

कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका कर्मोंसे अपने लिये (व्यक्तिगत सुख-आरामके लिये) कोई सम्बन्ध नहीं रहता । इस महापुरुषका यह अनुभव होता है कि पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि केवल संसारके हैं और संसारसे मिले हैं, व्यक्तिगत नहीं हैं । अतः इनके द्वारा केवल संसारके लिये ही कर्म करना है, अपने लिये नहीं । कारण यह है कि संसारकी सहायताके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता । इसके अलावा मिली हुई कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध भी समष्‍टि संसारके साथ ही है, अपने साथ नहीं । इसलिये अपना कुछ नहीं है । व्यष्‍टिके लिये समष्‍टि हो ही नहीं सकती । मनुष्यकी यही गलती होती है कि वह अपने लिये समष्‍टिका उपयोग करना चाहता है, इसीसे उसे अशान्ति होती है । अगर वह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका समष्‍टिके लिये उपयोग करे तो उसे महान् शान्ति प्राप्‍त हो सकती है । कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें यही विशेषता रहती है कि उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका उपयोग मात्र संसारके लिये ही होता है । अतः उसका शरीरादिकी क्रियाओंसे अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता । प्रयोजन न रहनेपर भी उस महापुरुषसे स्वाभाविक ही लोगोंके लिये आदर्शरूप उत्तम कर्म होते हैं । जिसका कर्म करनेसे प्रयोजन रहता है, उससे आदर्श कर्म नहीं होते‒यह सिद्धान्त है ।

नाकृतेनेह कश्‍चन’जो मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य, प्रमाद आदिमें रुचि रखता है, वह कर्मोंको नहीं करना चाहता; क्योंकि उसका प्रयोजन प्रमाद, आलस्य, आराम आदिसे उत्पन्‍न तामस-सुख रहता है (गीता‒अठारहवें अध्यायका उनतालीसवाँ श्‍लोक) । परन्तु यह महापुरुष, जो सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठ चुका है, तामस सुखमें प्रवृत्त हो ही कैसे सकता है ? क्योंकि इसका शरीरादिसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता, फिर आलस्य-आराम आदिमें रुचि रहनेका तो प्रश्‍न ही नहीं उठता ।

मार्मिक बात

प्रायः साधक कर्मोंके न करनेको ही महत्त्व देते हैं । वे कर्मोंसे उपरत होकर समाधिमें स्थित होना चाहते हैं, जिससे कोई भी चिन्तन बाकी न रहे । यह बात श्रेष्‍ठ और लाभप्रद तो है, पर सिद्धान्त नहीं है । यद्यपि प्रवृत्ति (करना)-की अपेक्षा निवृत्ति (न करना) श्रेष्‍ठ है, तथापि यह तत्त्व नहीं है ।

प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना)‒दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं । निर्विकल्प समाधितक सब प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी व्युत्थान होता है । क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है‒प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः’, और क्रिया हुए बिना व्युत्थानका होना सम्भव ही नहीं । इसलिये चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह सोना, बैठना, खड़ा होना, मौन होना, मूर्च्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है वास्तविक तत्त्व (चेतन स्वरूप)-में प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही नहीं हैं । वह प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंका निर्लिप्‍त प्रकाशक है ।

१.प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है, इसलिये उससे सम्बन्ध रखते हुए कोई भी प्राणी किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता (गीता ३ । ५; १८ । ११) । अतः जबतक प्रकृतिका सम्बन्ध है, तबतक समाधि भी कर्म ही है, जिसमें समाधि और व्युत्थान‒ये दो अवस्थाएँ होती हैं । परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर दो अवस्थाएँ नहीं होतीं, प्रत्युतसहज समाधि’ अथवासहजावस्था’ होती है, जिससे कभी व्युत्थान नहीं होता । कारण कि अवस्थाभेद प्रकृतिमें है, स्वरूपमें नहीं । इसलिये सहजावस्थाको सबसे उत्तम कहा गया है‒

उत्तमा    सहजावस्था   मध्यमा   ध्यानधारणा ।

निष्‍ठा शास्‍त्रचिन्ता च    तीर्थयात्राऽधमाऽधमा ॥

शरीरसे तादात्म्य होनेपर ही (शरीरको लेकर) करना’ औरन करना’ये दो विभाग (द्वन्द्व) होते हैं । वास्तवमेंकरना’ औरन करना’ दोनोंकी एक ही जाति है । शरीरसे सम्बन्ध रखकर न करना’ भी वास्तवमेंकरना’ ही है । जैसे गच्छति’ (जाता है) क्रिया है, ऐसे ही तिष्‍ठति’ (खड़ा है) भी क्रिया ही है । यद्यपि स्थूल दृष्‍टिसे गच्छति’ में क्रिया स्पष्‍ट दिखायी देती है और तिष्‍ठति’ में क्रिया नहीं दिखायी देती है, तथापि सूक्ष्म दृष्‍टिसे देखा जाय तो जिस शरीरमेंजाने’ की क्रिया थी, उसीमें अबखड़े रहने’ की क्रिया है । इसी प्रकार किसी कामको करना’ और न करना’इन दोनोंमें ही क्रिया है । अतः जिस प्रकार क्रियाओंका स्थूलरूपसे दिखायी देना (प्रवृत्ति) प्रकृतिमें ही है, उसी प्रकार स्थूल दृष्‍टिसे क्रियाओंका दिखायी न देना (निवृत्ति) भी प्रकृतिमें ही है । जिसका प्रकृति एवं उसके कार्यसे भौतिक तथा आध्यात्मिक और लौकिक तथा पारलौकिक कोई प्रयोजन नहीं रहता, उस महापुरुषका करने एवं न करनेसे कोई स्वार्थ नहीं रहता ।

जडताके साथ सम्बन्ध रहनेपर ही करने और न करनेका प्रश्‍न होता है; क्योंकि जडताके सम्बन्धके बिना कोई क्रिया होती ही नहीं । इस महापुरुषका जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति‒दोनोंसे अतीत सहज-निवृत्त-तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है । अतः साधकको जडता (शरीरमें अहंता और ममता)-से सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी ही आवश्यकता है । तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों विद्यमान है ही ।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्‍चिदर्थव्यपाश्रयः’शरीर तथा संसारसे किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध न रहनेके कारण उस महापुरुषकी समस्त क्रियाएँ स्वतः दूसरोंके हितके लिये होती हैं । जैसे शरीरके सभी अंग स्वतः शरीरके हितमें लगे रहते हैं, ऐसे ही उस महापुरुषका अपना कहलानेवाला शरीर (जो संसारका एक छोटा-सा अंग है) स्वतः संसारके हितमें लगा रहता है । उसका भाव और उसकी सम्पूर्ण चेष्‍टाएँ संसारके हितके लिये ही होती हैं । जैसे अपने हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर अपनेमें स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता, ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीरके द्वारा संसारका हित होनेपर उस महापुरुषमें किंचित् भी स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता ।

पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने सिद्ध महापुरुषके लिये कहा कि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है‒तस्य कार्यं न विद्यते ।’ उसका हेतु बताते हुए भगवान्‌ने इस श्‍लोकमें उस महापुरुषके लिये तीन बातें कही हैं‒(१) कर्म करनेसे उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता, (२) कर्म न करनेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता और (३) किसी भी प्राणी और पदार्थसे उसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कुछ पानेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता ।

वस्तुतः स्वरूपमें करने अथवा न करनेका कोई प्रयोजन नहीं है और किसी व्यक्ति तथा वस्तुके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है । कारण कि शुद्ध स्वरूपके द्वारा कोई क्रिया होती ही नहीं । जो भी क्रिया होती है, वह प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके सम्बन्धसे ही होती है । इसलिये अपने लिये कुछ करनेका विधान ही नहीं है ।

जबतक मनुष्यमें करनेका राग, पानेकी इच्छा, जीनेकी आशा और मरनेका भय रहता है, तबतक उसपर कर्तव्यका दायित्व रहता है । परन्तु जिसमें किसी भी क्रियाको करने अथवा न करनेका कोई राग नहीं है, संसारकी किसी भी वस्तु आदिको प्राप्‍त करनेकी इच्छा नहीं है, जीवित रहनेकी कोई आशा नहीं है और मृत्युसे कोई भय नहीं है, उसे कर्तव्य करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उससे स्वतः कर्तव्य-कर्म होते रहते हैं । जहाँ अकर्तव्य होनेकी सम्भावना हो, वहीं कर्तव्य पालनकी प्रेरणा रहती है ।

രരരരരരരരരര