।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण पूर्णमा, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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विशेष बात

गीतामें भगवान्‌की ऐसी शैली रही है कि वे भिन्‍न-भिन्‍न साधनोंसे परमात्माकी ओर चलनेवाले साधकोंके भिन्‍न-भिन्‍न लक्षणोंके अनुसार ही परमात्माको प्राप्‍त सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं । यहाँ सत्रहवें-अठारहवें श्‍लोकोंमें भी इसी शैलीका प्रयोग किया गया है ।

जो साधन जहाँसे प्रारम्भ होता है, अन्तमें वहीं उसकी समाप्‍ति होती है । गीतामें कर्मयोगका प्रकरण यद्यपि दूसरे अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकसे प्रारम्भ होता है, तथापि कर्मयोगके मूल साधनका विवेचन दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्‍लोकमें किया गया है । उस श्‍लोक (दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें)-के चार चरणोंमें बताया गया है‒

(१) कर्मण्येवाधिकारस्ते (तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है) ।

(२) मा फलेषु कदाचन (कर्मफलोंमें तेरा कभी भी अधिकार नहीं है) ।

(३) मा कर्मफलहेतुर्भूः (तू कर्मफलका हेतु मत बन) ।

(४) मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो) ।

प्रस्तुत (अठारहवें) श्‍लोकमें ठीक उपर्युक्त साधनाकी सिद्धिकी बात है । वहाँ (दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्‍लोक)-में दूसरे और तीसरे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्‍लोकके उत्तरार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका किसी प्राणी और पदार्थसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता । वहाँ पहले और चौथे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह प्रस्तुत श्‍लोकके पूर्वार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका कर्म करने अथवा न करने‒दोनोंसे ही कोई प्रयोजन नहीं रहता । इस प्रकार सत्रहवें-अठारहवें श्‍लोकोंमेंकर्मयोग’ से सिद्ध हुए महापुरुषके लक्षणोंका ही वर्णन किया गया है ।

कर्मयोगके साधनकी दृष्‍टिसे वास्तवमें अठारहवाँ श्‍लोक पहले तथा सत्रहवाँ श्‍लोक बादमें आना चाहिये । कारण कि जब कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषका कर्म करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता । तब उसकी रति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि अपने-आपमें ही हो जाती है । परन्तु सोलहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने मोघं पार्थ स जीवति’ पदोंसे कर्तव्य-पालन न करनेवाले मनुष्यके जीनेको निरर्थक बतलाया था; अतः सत्रहवें श्‍लोकमें यः तु’ पद देकर यह बतलाते हैं कि यदि सिद्ध महापुरुष कर्तव्य-कर्म नहीं करता तो उसका जीना निरर्थक नहीं है, प्रत्युत महान् सार्थक है । कारण कि उसने मनुष्यजन्मके उद्‌देश्यको पूरा कर लिया है । अतः उसके लिये अब कुछ भी करना शेष नहीं रहा ।

जिस स्थितिमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, उस स्थितिको साधारण-से-साधारण मनुष्य भी प्रत्येक अवस्थामें तत्परता एवं लगनपूर्वक निष्कामभावसे कर्तव्यकर्म करनेपर प्राप्‍त कर सकता है; क्योंकि उसकी प्राप्‍तिमें सभी स्वतन्त्र और अधिकारी हैं । कर्तव्यका सम्बन्ध प्रत्येक परिस्थितिसे जुड़ा हुआ है । इसलिये प्रत्येक परिस्थितिमें कर्तव्य निहित रहता है । केवल सुखलोलुपतासे ही मनुष्य कर्तव्यको भूलता है । यदि वह निःस्वार्थ-भावसे दूसरोंकी सेवा करके अपनी सुखलोलुपता मिटा डाले, तो जीवनके सभी दुःखोंसे छुटकारा पाकर परम शान्तिको प्राप्‍त हो सकता है । इस परम शान्तिकी प्राप्‍तिमें सबका समान अधिकार है । संसारके सर्वोपरि पदार्थ, पद आदि सबको समानरूपसे मिलने सम्भव नहीं हैं; किन्तु परम शान्ति सबको समानरूपसे ही मिलती है ।

परिशिष्‍ट भाव‒संसारमेंकरना’ औरन करना’दोनों सापेक्ष हैं । इसलियेमेरेको कुछ नहीं करना है’यह भीकरना’ ही है । परन्तु परमात्मतत्त्वमेंन करना’ निरपेक्ष है, स्वाभाविक है । कारण कि चिन्मय सत्ताका न तो क्रिया करनेके साथ सम्बन्ध है और न क्रिया न करनेके साथ सम्बन्ध है । इसलिये परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त हुए कर्मयोगी महापुरुषका न तो किसी वस्तुसे कोई सम्बन्ध रहता है, न व्यक्तिसे कोई सम्बन्ध रहता है और न क्रियासे ही कोई सम्बन्ध रहता है‒योऽवतिष्‍ठति नेङ्गते’ (गीता १४ । २३) । उसकी दृष्‍टिमें एक चिन्मय सत्ताके सिवाय कुछ नहीं रहता ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जैसे ‘करना’ प्रकृतिके सम्बन्धसे है, ऐसे ही ‘न करना’ भी प्रकृतिके सम्बन्धसे है । करना और न करना‒दोनों सापेक्ष हैं; परन्तु तत्त्व निरपेक्ष है । इसलिये स्वयं (चिन्मय सत्तामात्र)-का न तो करनेके साथ सम्बन्ध है, न नहीं करनेके साथ सम्मन्ध है । करना, न करना तथा पदार्थ‒ये सब उसी सत्तामात्रसे प्रकाशित होते हैं (गीता १३ । ३३) ।

कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें करनेका राग तथा पानेकी इच्छा सर्वथा नहीं रहती, इसलिये उसका न तो कुछ करनेसे मतलब रहता है, न कुछ नहीं करनेसे मतलब रहता है और न उसका किसी भी प्राणी-पदार्थसे कुछ पानेसे ही मतलब रहता है । तात्पर्य है कि उसका प्रकृति-विभागसे सर्वथा सम्बन्ध नहीं रहता ।

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