Listen विशेष बात भगवान् अपनी प्रकृतिके द्वारा अवतार
लेते हैं और तरह-तरहकी अलौकिक लीलाएँ करते हैं । जैसे अग्नि स्वयं कुछ नहीं करती, उसकी प्रकाशिका-शक्ति प्रकाश कर देती
है,
दाहिका-शक्ति जला देती है; ऐसे ही भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते, उनकी दिव्य शक्ति ही सब काम कर देती
है । शास्त्रोंमें आता है कि सीताजी कहती हैं‒‘रावणको मारना आदि सब काम मैंने किया
है,
रामजीने कुछ नहीं किया ।’ जैसे मनुष्य और उसकी शक्ति (ताकत) है, ऐसे ही भगवान् और उनकी शक्ति है । उस
शक्तिको भगवान्से अलग भी नहीं कह सकते और एक भी नहीं कह सकते । मनुष्यमें जो शक्ति
है,
उसे वह अपनेसे अलग करके नहीं दिखा सकता, इसलिये वह उससे अलग नहीं है । मनुष्य
रहता है, पर
उसकी शक्ति घटती-बढ़ती रहती है, इसलिये वह मनुष्यसे एक भी नहीं है । यदि उसकी मनुष्यसे
एकता होती तो वह उसके स्वरूपके साथ बराबर रहती, घटती-बढ़ती नहीं । अतः भगवान् और उनकी
शक्तिको भिन्न अथवा अभिन्न कुछ भी नहीं कह सकते । दार्शनिकोंने भिन्न भी नहीं कहा
और अभिन्न भी नहीं कहा । वह शक्ति अनिर्वचनीय है । भगवान् श्रीकृष्णके उपासक उस शक्तिको
श्रीजी (राधाजी)-के नामसे कहते हैं । जैसे पुरुष और स्त्री दो
होते हैं, ऐसे श्रीकृष्ण और श्रीजी दो नहीं हैं । ज्ञानमें तो द्वैतका अद्वैत होता है
अर्थात् दो होकर भी एक हो जाता है, और भक्तिमें अद्वैतका द्वैत होता है अर्थात् एक होकर भी
दो हो जाता है । जीव और ब्रह्म एक हो जायँ तो ‘ज्ञान’ होता
है और एक ही ब्रह्म दो रूप हो जाय तो ‘भक्ति’ होती है । एक ही अद्वैत-तत्त्व
प्रेमकी लीला करनेके लिये, प्रेमका आस्वादन करनेके
लिये, सम्पूर्ण जीवोंको प्रेमका आनन्द देनेके
लिये श्रीकृष्ण और श्रीजी‒इन दो रूपोंसे प्रकट होता है१ । १.येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहश्चैकः क्रीडनार्थं द्विधाभूत्
। (श्रीराधातापनीयोपनिषद्) ‘जो ये राधा और जो ये
कृष्ण रसके सागर हैं, वे एक ही हैं, पर लीलाके लिये दो रूप
बने हुए हैं ।’ दो रूप होनेपर भी दोनोंमें कौन बड़ा है और कौन छोटा, कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद ? इसका पता ही नहीं चलता । दोनों ही एक-दूसरेसे
बढ़कर विलक्षण दीखते हैं । दोनों एक-दूसरेके प्रति आकृष्ट होते हैं । श्रीजीको देखकर
भगवान् प्रसन्न होते हैं और भगवान्को देखकर श्रीजी । दोनोंकी परस्पर प्रेम-लीलासे
रसकी वृद्धि होती है । इसीको रास कहते हैं । भगवान्की शक्तियाँ अनन्त हैं, अपार हैं । उनकी दिव्य शक्तियोंमें
ऐश्वर्य-शक्ति भी है और माधुर्य-शक्ति भी । ऐश्वर्य-शक्तिसे भगवान् ऐसे विचित्र और
महान् कार्य करते हैं, जिनको दूसरा कोई कर ही नहीं सकता । ऐश्वर्य-शक्तिके कारण
उनमें जो महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता दीखती है, वह उनके सिवाय और किसीमें देखने-सुननेमें
नहीं आती । माधुर्य-शक्तिमें भगवान् अपने ऐश्वर्यको भूल
जाते हैं । भगवान्को भी मोहित करनेवाली माधुर्य-शक्तिमें एक मधुरता, मिठास होती है, जिसके कारण भगवान् बड़े मधुर
और प्रिय लगते हैं । जब भगवान् ग्वालबालोंके साथ खेलते हैं, तब माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है । अगर
उस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट हो जाय तो सारा खेल बिगड़ जाय; ग्वालबाल डर जायँ और भगवान्के साथ
खेल भी न सकें । ऐसे ही भगवान् कहीं मित्ररूपसे, कहीं पुत्ररूपसे और कहीं पतिरूपसे प्रकट
हो जाते हैं, तो
उस समय उनकी ऐश्वर्य-शक्ति छिपी रहती है और माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है । तात्पर्य
है कि भगवान् भक्तोंके भावोंके अनुसार उनको आनन्द देनेके लिये ही अपनी ऐश्वर्य-शक्तिको
छिपाकर माधुर्य-शक्ति प्रकट कर देते हैं । जिस समय माधुर्य-शक्ति प्रकट रहती है, उस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट नहीं होती
और जिस समय ऐश्वर्य-शक्ति प्रकट रहती है, उस समय माधुर्य-शक्ति प्रकट नहीं होती
। ऐश्वर्य-शक्ति केवल तभी प्रकट होती है, जब माधुर्यभावमें कोई शंका पैदा हो
जाय । जैसे, माधुर्य-शक्तिके
प्रकट रहनेपर भगवान् श्रीकृष्ण बछड़ोंको ढूँढ़ते हैं । परन्तु ‘बछड़े कहाँ गये’ ? यह शंका पैदा होते ही ऐश्वर्य-शक्ति
प्रकट हो जाती है और भगवान् तत्काल जान जाते हैं कि बछड़ोंको ब्रह्माजी ले गये हैं । भगवान्में एक सौन्दर्य-शक्ति भी होती
है जिससे हरेक प्राणी उनमें आकृष्ट हो जाता है । भगवान् श्रीकृष्णके सौन्दर्यको देखकर
मथुरापुरवासिनी स्त्रियाँ आपसमें कहती हैं‒ गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य
रूपं लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम्
। दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं
दुराप- मेकान्तधाम यशसः श्रिय ऐश्वरस्य
॥ (श्रीमद्भा॰ १० । ४४ । १४) ‘इन भगवान् श्रीकृष्णका
रूप सम्पूर्ण सौन्दर्यका सार है, सृष्टिमात्रमें किसीका
भी रूप इनके रूपके समान नहीं है । इनका रूप किसीके सँवारने-सजाने अथवा गहने-कपड़ोंसे
नहीं, प्रत्युत स्वयंसिद्ध है । इस रूपको
देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती; क्योंकि यह नित्य नवीन
ही रहता है । समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य
इस रूपके आश्रित है । इस रूपके दर्शन बहुत ही दुर्लभ हैं । गोपियोंने पता नहीं कौन-सा
तप किया था, जो अपने नेत्रोंके दोनोंसे सदा इनकी
रूप-माधुरीका पान किया करती हैं !’ शुकदेवजी कहते हैं‒ निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ
जना मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका
नृप । प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम् ॥ पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया । जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त
इव बाहुभिः ॥ (श्रीमद्भा १० । ४३ । २०-२१) ‘परीक्षित् ! मंचोंपर
जितने लोग बैठे थे, वे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय
पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और
मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये । वे नेत्रोंद्वारा
उनकी मुख-माधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे; मानो वे उन्हें नेत्रोंसे
पी रहे हों, जिह्वासे चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों
और भुजाओंसे पकड़कर हृदयसे सटा रहे हों !’ भगवान् श्रीरामके सौन्दर्यको देखकर
विदेह राजा जनक भी विदेह अर्थात् देहकी सुध-बुधसे रहित हो जाते हैं‒ मूरति मधुर मनोहर देखी । भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी
॥ (मानस १ । २१५ । ४) और कहते हैं‒ सहज बिरागरूप
मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा
॥ (मानस १ । २१६ । २) वनमें रहनेवाले कोल-भील भी भगवान्के
विग्रहको देखकर मुग्ध हो जाते हैं‒ करहिं जोहारु भेंट
धरि आगे । प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे
॥ चित्र लिखे जनु जहँ तहँ
ठाढे़ । पुलक सरीर नयन
जल बाढे़ ॥ (मानस २ । १३५ । ३) प्रेमियोंकी तो बात ही क्या, वैरभाव रखनेवाले राक्षस खर-दूषण भी
भगवान्के विग्रहकी सुन्दरताको देखकर चकित हो जाते हैं और कहते हैं‒ नाग असुर सुर नर मुनि जेते
। देखे जिते हते हम केते ॥ हम भरि जन्म सुनहु सब भाई
। देखी नहिं असि सुंदरताई
॥ (मानस ३ । १९ । २)
तात्पर्य है कि भगवान्के दिव्य सौन्दर्यकी
ओर प्रेमी, विरक्त, ज्ञानी, मूर्ख, वैरी, असुर और राक्षसतक सबका मन आकृष्ट हो
जाता है । രരരരരരരരരര |