Listen ‘सम्भवाम्यात्ममायया’‒जो मनुष्य भगवान्से विमुख रहते हैं, उनके सामने भगवान् अपनी योगमायामें
छिपे रहते हैं और साधारण मनुष्य-जैसे ही दीखते हैं । मनुष्य ज्यों-ज्यों भगवान्के
सम्मुख होता जाता है, त्यों-त्यों भगवान् उसके सामने प्रकट होते जाते हैं ।
इसी योगमायाका आश्रय लेकर भगवान् विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते हैं१ । १.योगमायाका आश्रय लेकर ही भगवान् रासलीला
करते हैं‒ भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः । वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥ (श्रीमद्भा॰ १० । २९ । १) भगवद्विमुख मूढ़ पुरुषके आगे दो परदे
रहते हैं‒एक तो अपनी मूढ़ताका और दूसरा भगवान्की योग-मायाका (गीता‒सातवें अध्यायका
पचीसवाँ श्लोक) । अपनी मूढ़ता रहनेके कारण भगवान्का प्रभाव साक्षात् सामने प्रकट होनेपर
भी वह उसे समझ नहीं सकता; जैसे‒द्रौपदीका चीर-हरण करनेके लिये दुःशासन अपना पूरा
बल लगाता है, उसकी
भुजाएँ थक जाती हैं, पर साड़ीका अन्त नहीं आता‒ द्रुपद सुता निरबल भइ ता
दिन, तजि आये निज धाम । दुस्सासन की भुजा
थकित भई, बसन-रूप भए स्याम ॥ ‒इस प्रकार भगवान्ने सभाके भीतर अपना
ऐश्वर्य साक्षात् प्रकट कर दिया । परन्तु अपनी मूढ़ताके कारण दुःशासन, दुर्योधन, कर्ण आदिपर इस बातका कोई असर ही नहीं
पड़ा कि द्रौपदीके द्वारा भगवान्को पुकारनेमात्रसे कितनी विलक्षणता प्रकट हो गयी !
एक स्त्रीका चीरहरण भी नहीं कर सके तो और क्या कर सकते हैं ! इस तरफ उनकी दृष्टि
ही नहीं गयी । भगवान्का प्रभाव सामने देखते हुए भी वे उसे जान नहीं सके । यदि जीव अपनी मूढ़ता (अज्ञान)
दूर कर दे तो उसे अपने स्वरूपका अथवा परमात्मतत्त्वका बोध तो हो जाता है, पर भगवान्के दर्शन नहीं
होते२ । २.अपने स्वरूपका बोध होनेपर भगवान्के
दर्शन हो जायँ‒ऐसा नियम नहीं है । परन्तु भगवान्के दर्शन होनेपर अपने स्वरूपका बोध
भी हो जाता है । इसलिये भगवान् कहते हैं‒ मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ (मानस ३ । ३६ । ५) भगवान्के दर्शन तभी होते हैं, जब भगवान् अपनी योगमायाका
परदा हटा देते हैं । अपना अज्ञान मिटाना तो जीवके हाथकी बात है, पर योगमायाको दूर करना उसके हाथकी बात
नहीं है । वह सर्वथा भगवान्के शरण हो जाय तो भगवान् अपनी
शक्तिसे उसका अज्ञान भी मिटा सकते हैं और दर्शन भी दे सकते हैं । भगवान् जितनी लीलाएँ करते हैं, सब योगमायाका आश्रय लेकर ही करते हैं
। इसी कारण उनकी लीलाको देख सकते हैं, उसका अनुभव कर सकते हैं । यदि वे योगमायाका आश्रय
न लें तो उनकी लीलाको कोई देख ही नहीं सकता, उसका आस्वादन कोई कर ही नहीं सकता । अवतार-सम्बन्धी विशेष बात अवतारका अर्थ है‒नीचे उतरना । सब जगह
परिपूर्ण रहनेवाले सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा अपने अनन्य भक्तोंकी इच्छा पूरी करनेके
लिये अत्यधिक कृपासे एक स्थान-विशेषमें अवतार लेते हैं और छोटे बन जाते हैं । दूसरे
लोगोंका प्रभाव या महत्त्व तो बड़े हो जानेसे होता है, पर भगवान्का प्रभाव या महत्त्व छोटे
हो जानेसे होता है । कारण कि अपार, असीम, अनन्त होकर भी भगवान् छोटे-से
बन जाते हैं‒यह उनकी विलक्षणता ही है । जैसे, भगवान् अनन्त ब्रह्माण्डोंको धारण करते हैं; परन्तु एक पर्वतको धारण करनेसे भगवान्
‘गिरिधारी’ नामसे प्रसिद्ध हो गये ! अनन्त ब्रह्माण्ड जिनके रोम-रोममें स्थित है३, ३ .‘रोम रोम प्रति लागे कोटि
कोटि ब्रह्मंड । (मानस १ । २०१) ऐसे परमेश्वर एक पर्वतको उठा लें‒यह कोई बड़ी बात नहीं, प्रत्युत छोटी बात है । परन्तु छोटी
बातमें ही भगवान्की बड़ी बात होती है । इसी प्रकार अवतार लेनेमें ही भगवान्की विशेषता
है । साधारण आदमी जिस स्थितिपर है, उसी स्थितिपर आकर भगवान् वैसी लीला
करते हैं । बिलकुल भोले-भाले साधारण बालककी तरह बनकर लीला करते हैं । ग्वालबालोंसे
खेलते समय वे दूसरे ग्वालबालसे हार भी जाते हैं । जो ग्वालबाल जीत जाता है, वह सवार बन जाता है और भगवान् घोड़ा
बन जाते हैं । यह उनकी विशेष महत्ता है । भगवान्के प्रभावको जाननेवाले ज्ञानी
महात्मालोग तो उनके स्वरूपमें मस्त रहते हैं; पर भक्तोंको उनकी साधारण अज्ञ बालककी
तरह भोली-भाली लीला बड़ी विचित्र और मीठी लगती है । वहाँ ज्ञानियोंका ज्ञान नहीं चलता
। ज्ञानियोंके शिरोमणि ब्रह्माजी भी भगवान्की लीलाको देखकर चकरा गये ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, योगी-तपस्वी, संत-महात्मा भी उनकी लीलाओंके रहस्यको
नहीं जान सकते और इस विषयमें मूक हो जाते हैं । भगवान् ही कृपा करके जिन प्यारे अन्तरंग
भक्तोंको जनाना चाहते हैं, वे ही उनकी लीलाके तत्त्वको जान पाते हैं‒‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’ (मानस २ । १२७ । २) । गायें चराते समय, ग्वालबालोंसे खेलते समय भी भगवान् बड़े-बड़े
प्रभावशाली कार्य कर देते हैं । बड़े-बड़े बलवान् राक्षसोंको भी चुटकियोंमें ही खत्म
कर देते हैं । छोटे-से बालक बननेपर भी उनका प्रभाव वैसा-का-वैसा ही रहता है । जैसे कोई बहुत बड़ा विद्वान् किसी बालकको
वर्णमाला सिखाता है, तो वह बालकका हाथ पकड़कर उससे ‘क ख ग.....’ लिखवाता है और मुँहसे भी वैसा बोलता
है;
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह विद्वान्
स्वयं वर्णमाला सीखता है । वह तो बालककी स्थितिमें आकर उसे सिखाता है, जिससे वह सुगमतापूर्वक
सीख जाय । ऐसे ही अनन्तब्रह्माण्डनायक भगवान् हमलोगोंके बीच
हमारे सामने आते हैं और हमारी तरह ही बनकर हमें शिक्षा देते हैं । उनकी बड़ी अलौकिक
विचित्र-विचित्र लीलाएँ होती हैं, जिनका श्रवण, पठन और गायन करनेसे भी लोगोंका
उद्धार हो जाता है ।
परिशिष्ट भाव‒भगवान् प्रकृतिकी सहायतासे ही क्रिया
(लीला) करते हैं । इसीलिये सीताजी कहती हैं कि सब कार्य मैंने किये हैं, भगवान् रामने कुछ नहीं किया (अध्यात्मरामायण, बाल॰ पहले अध्यायके बत्तीसवेंसे तैंतालीसवे श्लोकतक) । परन्तु
भगवान् मनुष्यकी तरह प्रकृतिके अधीन नहीं होते‒‘प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
।’ कारण कि भगवान्के लिये प्रकृति ‘पर’ नहीं है, प्रत्युत उनसे अभिन्न है (गीता‒सातवें
अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्लोक) । भगवान्को प्रकृतिमें स्थित मनुष्योंके सामने आना
है,
इसलिये वे प्रकृतिको स्वीकार करके प्रकट
होते हैं । तभी मनुष्य उनको देख सकते हैं । രരരരരരരരരര |