।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्भवाम्यात्ममायया’जो मनुष्य भगवान्‌से विमुख रहते हैं, उनके सामने भगवान् अपनी योगमायामें छिपे रहते हैं और साधारण मनुष्य-जैसे ही दीखते हैं । मनुष्य ज्यों-ज्यों भगवान्‌के सम्मुख होता जाता है, त्यों-त्यों भगवान् उसके सामने प्रकट होते जाते हैं । इसी योगमायाका आश्रय लेकर भगवान् विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते हैं

१.योगमायाका आश्रय लेकर ही भगवान् रासलीला करते हैं‒

भगवानपि  ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ।

वीक्ष्य  रन्तुं   मनश्‍चक्रे  योगमायामुपाश्रितः ॥

(श्रीमद्भा १० । २९ । १)

भगवद्‍विमुख मूढ़ पुरुषके आगे दो परदे रहते हैं‒एक तो अपनी मूढ़ताका और दूसरा भगवान्‌की योग-मायाका (गीता‒सातवें अध्यायका पचीसवाँ श्‍लोक) । अपनी मूढ़ता रहनेके कारण भगवान्‌का प्रभाव साक्षात् सामने प्रकट होनेपर भी वह उसे समझ नहीं सकता; जैसे‒द्रौपदीका चीर-हरण करनेके लिये दुःशासन अपना पूरा बल लगाता है, उसकी भुजाएँ थक जाती हैं, पर साड़ीका अन्त नहीं आता‒

द्रुपद सुता निरबल भइ ता दिन, तजि आये निज धाम ।

दुस्सासन की  भुजा थकित भई, बसन-रूप भए स्याम ॥

‒इस प्रकार भगवान्‌ने सभाके भीतर अपना ऐश्‍वर्य साक्षात् प्रकट कर दिया । परन्तु अपनी मूढ़ताके कारण दुःशासन, दुर्योधन, कर्ण आदिपर इस बातका कोई असर ही नहीं पड़ा कि द्रौपदीके द्वारा भगवान्‌को पुकारनेमात्रसे कितनी विलक्षणता प्रकट हो गयी ! एक स्‍त्रीका चीरहरण भी नहीं कर सके तो और क्या कर सकते हैं ! इस तरफ उनकी दृष्‍टि ही नहीं गयी । भगवान्‌का प्रभाव सामने देखते हुए भी वे उसे जान नहीं सके ।

यदि जीव अपनी मूढ़ता (अज्ञान) दूर कर दे तो उसे अपने स्वरूपका अथवा परमात्मतत्त्वका बोध तो हो जाता है, पर भगवान्‌के दर्शन नहीं होते

२.अपने स्वरूपका बोध होनेपर भगवान्‌के दर्शन हो जायँ‒ऐसा नियम नहीं है । परन्तु भगवान्‌के दर्शन होनेपर अपने स्वरूपका बोध भी हो जाता है । इसलिये भगवान् कहते हैं‒

मम दरसन फल परम अनूपा ।

जीव पाव निज सहज सरूपा ॥

(मानस ३ । ३६ । ५)

भगवान्‌के दर्शन तभी होते हैं, जब भगवान् अपनी योगमायाका परदा हटा देते हैं । अपना अज्ञान मिटाना तो जीवके हाथकी बात है, पर योगमायाको दूर करना उसके हाथकी बात नहीं है । वह सर्वथा भगवान्‌के शरण हो जाय तो भगवान् अपनी शक्तिसे उसका अज्ञान भी मिटा सकते हैं और दर्शन भी दे सकते हैं ।

भगवान् जितनी लीलाएँ करते हैं, सब योगमायाका आश्रय लेकर ही करते हैं । इसी कारण उनकी लीलाको देख सकते हैं, उसका अनुभव कर सकते हैं । यदि वे योगमायाका आश्रय न लें तो उनकी लीलाको कोई देख ही नहीं सकता, उसका आस्वादन कोई कर ही नहीं सकता ।

अवतार-सम्बन्धी विशेष बात

अवतारका अर्थ है‒नीचे उतरना । सब जगह परिपूर्ण रहनेवाले सच्‍चिदानन्दस्वरूप परमात्मा अपने अनन्य भक्तोंकी इच्छा पूरी करनेके लिये अत्यधिक कृपासे एक स्थान-विशेषमें अवतार लेते हैं और छोटे बन जाते हैं । दूसरे लोगोंका प्रभाव या महत्त्व तो बड़े हो जानेसे होता है, पर भगवान्‌का प्रभाव या महत्त्व छोटे हो जानेसे होता है । कारण कि अपार, असीम, अनन्त होकर भी भगवान् छोटे-से बन जाते हैं‒यह उनकी विलक्षणता ही है । जैसे, भगवान् अनन्त ब्रह्माण्डोंको धारण करते हैं; परन्तु एक पर्वतको धारण करनेसे भगवान् ‘गिरिधारी’ नामसे प्रसिद्ध हो गये ! अनन्त ब्रह्माण्ड जिनके रोम-रोममें स्थित है,

.रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड । (मानस १ । २०१)

ऐसे परमेश्‍वर एक पर्वतको उठा लें‒यह कोई बड़ी बात नहीं, प्रत्युत छोटी बात है । परन्तु छोटी बातमें ही भगवान्‌की बड़ी बात होती है । इसी प्रकार अवतार लेनेमें ही भगवान्‌की विशेषता है ।

साधारण आदमी जिस स्थितिपर है, उसी स्थितिपर आकर भगवान् वैसी लीला करते हैं । बिलकुल भोले-भाले साधारण बालककी तरह बनकर लीला करते हैं । ग्वालबालोंसे खेलते समय वे दूसरे ग्वालबालसे हार भी जाते हैं । जो ग्वालबाल जीत जाता है, वह सवार बन जाता है और भगवान् घोड़ा बन जाते हैं । यह उनकी विशेष महत्ता है ।

भगवान्‌के प्रभावको जाननेवाले ज्ञानी महात्मालोग तो उनके स्वरूपमें मस्त रहते हैं; पर भक्तोंको उनकी साधारण अज्ञ बालककी तरह भोली-भाली लीला बड़ी विचित्र और मीठी लगती है । वहाँ ज्ञानियोंका ज्ञान नहीं चलता । ज्ञानियोंके शिरोमणि ब्रह्माजी भी भगवान्‌की लीलाको देखकर चकरा गये ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, योगी-तपस्वी, संत-महात्मा भी उनकी लीलाओंके रहस्यको नहीं जान सकते और इस विषयमें मूक हो जाते हैं । भगवान् ही कृपा करके जिन प्यारे अन्तरंग भक्तोंको जनाना चाहते हैं, वे ही उनकी लीलाके तत्त्वको जान पाते हैं‒‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’ (मानस २ । १२७ । २) । गायें चराते समय, ग्वालबालोंसे खेलते समय भी भगवान् बड़े-बड़े प्रभावशाली कार्य कर देते हैं । बड़े-बड़े बलवान् राक्षसोंको भी चुटकियोंमें ही खत्म कर देते हैं । छोटे-से बालक बननेपर भी उनका प्रभाव वैसा-का-वैसा ही रहता है ।

जैसे कोई बहुत बड़ा विद्वान् किसी बालकको वर्णमाला सिखाता है, तो वह बालकका हाथ पकड़कर उससे ‘क ख ग.....लिखवाता है और मुँहसे भी वैसा बोलता है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह विद्वान् स्वयं वर्णमाला सीखता है । वह तो बालककी स्थितिमें आकर उसे सिखाता है, जिससे वह सुगमतापूर्वक सीख जाय । ऐसे ही अनन्तब्रह्माण्डनायक भगवान् हमलोगोंके बीच हमारे सामने आते हैं और हमारी तरह ही बनकर हमें शिक्षा देते हैं । उनकी बड़ी अलौकिक विचित्र-विचित्र लीलाएँ होती हैं, जिनका श्रवण, पठन और गायन करनेसे भी लोगोंका उद्धार हो जाता है ।

परिशिष्‍ट भाव‒भगवान् प्रकृतिकी सहायतासे ही क्रिया (लीला) करते हैं । इसीलिये सीताजी कहती हैं कि सब कार्य मैंने किये हैं, भगवान् रामने कुछ नहीं किया (अध्यात्मरामायण, बाल पहले अध्यायके बत्तीसवेंसे तैंतालीसवे श्‍लोकतक) । परन्तु भगवान् मनुष्यकी तरह प्रकृतिके अधीन नहीं होते‒‘प्रकृतिं स्वामधिष्‍ठाय ।’ कारण कि भगवान्‌के लिये प्रकृति ‘पर’ नहीं है, प्रत्युत उनसे अभिन्‍न है (गीता‒सातवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्‍लोक) । भगवान्‌को प्रकृतिमें स्थित मनुष्योंके सामने आना है, इसलिये वे प्रकृतिको स्वीकार करके प्रकट होते हैं । तभी मनुष्य उनको देख सकते हैं ।

രരരരരരരരരര