।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद पूर्णिमा, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्ध‒आठवें श्‍लोकमें अपने अवतारके उद्‍देश्यका वर्णन करके नवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने अपने कर्मोंकी दिव्यताको जाननेका माहात्म्य बताया । कर्मजन्य सिद्धि चाहनेसे ही कर्मोंमें अदिव्यता (मलिनता) आती है, अतः कर्मोंमें दिव्यता (पवित्रता) कैसे आती है‒इसे बतानेके लिये अब भगवान् अपने कर्मोंकी दिव्यताका विशेष वर्णन करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒भगवान्‌के कर्मोंकी दिव्यता ।

       चातुर्वर्ण्यं   मया   सृष्‍टं   गुणकर्मविभागशः ।

       तस्य  कर्तारमपि  मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥१३॥

       न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।

   इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥१४॥

अर्थ‒मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोकी रचना की गयी है । उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्‍वरको तू अकर्ता जान ! कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्‍त नहीं करते । इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता ।

मया = मेरे द्वारा

स्पृहा = स्पृहा

गुणकर्मविभागशः = गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक

न = नहीं है, (इसलिये)

चातुर्वर्ण्यम् = चारों वर्णोंकी

माम् = मुझे

सृष्‍टम् = रचना की गयी है ।

कर्माणि = कर्म

तस्य = उस (सृष्‍टि-रचना आदि)-का

, लिम्पन्ति = लिप्‍त नहीं करते ।

कर्तारम् = कर्ता होनेपर

इति = इस प्रकार

अपि = भी

यः = जो

माम् = मुझ

माम् = मुझे

अव्ययम् = अविनाशी परमेश्‍वरको (तू)

अभिजानाति = तत्त्वसे जान लेता है,

अकर्तारम् = अकर्ता

सः = वह (भी)

विद्धि = जान ! (कारण कि)

कर्मभिः = कर्मोंसे

कर्मफले = कर्मोंके फलमें

न = नहीं

मे = मेरी

बध्यते = बँधता ।

व्याख्या‒‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्‍टं गुणकर्मविभागशः

.चत्वारो वर्णाश्‍चातुर्वर्ण्यम्’ यहाँपर ‘चतुर्वर्णादीनां स्वार्थे उपसंख्यानम् इस वार्तिकसे स्वार्थमें ‘ष्यञ् प्रत्यय’ किया गया है ।

‒पूर्वजन्मोंमें किये गये कर्मोंके अनुसार सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंमें न्यूनाधिकता रहती है । सृष्‍टि-रचनाके समय उन गुणों और कर्मोंके अनुसार भगवान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन चारों वर्णोंकी रचना करते हैं

२.सत्त्वगुणकी प्रधानतासे ब्राह्मणकी, रजोगुणकी प्रधानता तथा सत्त्वगुणकी गौणतासे क्षत्रियकी, रजोगुणकी प्रधानता तथा तमोगुणकी गौणतासे वैश्यकी और तमोगुणकी प्रधानतासे शूद्रकी रचना की गयी है ।

मनुष्यके सिवाय देव, पितर, तिर्यक् आदि दूसरी योनियोंकी रचना भी भगवान् गुणों और कर्मोंके अनुसार ही करते हैं । इसमें भगवान्‌की किंचिन्मात्र भी विषमता नहीं है ।

चातुर्वर्ण्यम्’ पद प्राणिमात्रका उपलक्षण है । इसका तात्पर्य है कि मनुष्य ही चार प्रकारके नहीं होते, अपितु पशु, पक्षी, वृक्ष आदि भी चार प्रकारके होते हैं; जैसे‒पक्षियोंमें कबूतर आदि ब्राह्मण, बाज आदि क्षत्रिय, चील आदि वैश्य और कौआ आदि शूद्र पक्षी हैं । इसी प्रकार वृक्षोंमें पीपल आदि ब्राह्मण, नीम आदि क्षत्रिय, इमली आदि वैश्य और बबूल (कीकर) आदि शूद्र वृक्ष हैं । परन्तु यहाँ ‘चातुर्वर्ण्यम्’ पदसे मनुष्योंको ही लेना चाहिये; क्योंकि वर्ण-विभागको मनुष्य ही समझ सकते हैं और उसके अनुसार कर्म कर सकते हैं । कर्म करनेका अधिकार मनुष्यको ही है ।

चारों वर्णोंकी रचना मैंने ही की है‒इससे भगवान्‌का यह भाव भी है कि एक तो ये मेरे ही अंश हैं; और दूसरे, मैं प्राणिमात्रका सुहृद् हूँ, इसलिये मैं सदा उनके हितको ही देखता हूँ । इसके विपरीत ये न तो देवताके अंश हैं और न देवता सबके सुहृद् ही हैं । इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपने वर्णके अनुसार समस्त कर्तव्यकर्मोंसे मेरा ही पूजन करे (गीता‒अठारहवें अध्यायका छियालीसवाँ श्‍लोक) ।

‘तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्’यहाँ ‘अकर्तारम्’ पद कर्म करते हुए भी कर्तृत्वाभिमानका अभाव बतानेके लिये आया है । सृष्‍टिकी रचना, पालन, संहार आदि सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी भगवान् उन कर्मोंसे सर्वथा अतीत, निर्लिप्‍त ही रहते हैं ।

सृष्‍टि-रचनामें भगवान् ही उपादान कारण हैं और वे ही निमित्त कारण हैं । मिट्टीसे बने पात्रमें मिट्टी उपादान कारण है और कुम्हार निमित्त कारण है । मिट्टीसे पात्र बननेमें मिट्टी व्यय (खर्च) हो जाती है और उसे बनानेमें कुम्हारकी शक्ति भी खर्च होती है; परन्तु सृष्‍टि-रचनामें भगवान्‌का कुछ भी व्यय नहीं होता । वे ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं । इसलिये उन्हें ‘अव्ययम्’ कहा गया है ।

जीव भी भगवान्‌का अंश होनेसे अव्यय ही है । विचार करें कि शरीरादि सब वस्तुएँ संसारकी हैं और संसारसे ही मिली हैं । अतः उन्हें संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे अपना क्या व्यय हुआ ? हम तो (स्वरूपतः) अव्यय ही रहे । इसलिये यदि साधक शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन, सम्पत्ति आदि मिले हुए सांसारिक पदार्थोंको अपना और अपने लिये न माने, तो फिर उसे अपनी अव्ययताका अनुभव हो जायगा ।

यहाँ ‘विद्धि’ पदसे भगवान्‌ने अपने कर्मोंकी दिव्यताको समझनेकी आज्ञा दी है । कर्म करते हुए भी कर्म, कर्म-सामग्री और कर्मफलसे अपना कोई सम्बन्ध न रहना ही कर्मोंकी दिव्यता है ।

രരരരരരരരരര