।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
आश्‍विन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा’विश्‍व-रचनादि समस्त कर्म करते हुए भी भगवान्‌का उन कर्मोंसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । उनके कर्मोंमें विषमता, पक्षपात आदि दोष लेशमात्र भी नहीं हैं । उनकी कर्म-फलमें किंचिन्मात्र भी आसक्ति, ममता या कामना नहीं है । इसलिये वे कर्म भगवान्‌को लिप्‍त नहीं करते ।

उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु मात्र कर्मफल है । भगवान् कहते हैं कि जैसे मेरी कर्मफलमें स्पृहा नहीं है, ऐसे ही तुम्हारी भी कर्मफलमें स्पृहा नहीं होनी चाहिये । कर्मफलमें स्पृहा न रहनेसे सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी तुम कर्मोंसे बँधोगे नहीं ।

पीछेके (तेरहवें) श्‍लोकमें भगवान्‌ने बताया कि सृष्‍टि-रचनादि समस्त कर्मोंका कर्ता होते हुए भी मैं अकर्ता हूँ अर्थात् मुझमें कर्तृत्वाभिमान नहीं है और इस श्‍लोकमें बताते हैं कि कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है अर्थात् मुझमें भोक्तृत्वाभिमान भी नहीं है । अतः साधकको भी इन दोनोंसे रहित होना चाहिये । फलेच्छाका त्याग करके केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्तृत्व और भोक्तृत्व‒दोनों ही नहीं रहते । कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है । अतः इनके न रहनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध ही है ।

इति मां योऽभिजानाति’मनुष्यमें जब कामनाएँ उत्पन्‍न होती हैं, तब उसकी दृष्‍टि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंपर रहती है । उत्पत्ति-विनाशशील (अनित्य) पदार्थोंपर दृष्‍टि रहनेसे वह नित्य भगवान्‌को तत्त्वसे नहीं जान सकता । पर कामनाओंके मिटनेसे जब अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, तब भगवान्‌की ओर स्वतः दृष्‍टि जाती है । भगवान्‌की ओर दृष्‍टि जानेपर मनुष्य जान जाता है कि भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं, इसलिये उनके द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाएँ प्राणिमात्रके हितके लिये ही होती हैं । भगवान् तो जीवोंको कर्म-बन्धनसे रहित करनेके लिये ही उन्हें मनुष्य-शरीर देते हैं, पर इस बातको न समझनेके कारण जीव कर्मोंसे नये-नये सम्बन्ध मानकर और बन्धन उत्पन्‍न कर लेता है । इसलिये कर्तापन और फलेच्छा न होनेपर भी वे केवल कृपा करके जीवोंको कर्म-बन्धनसे रहित करके उनका उद्धार करनेके लिये ही सृष्‍टि-रचनाका कार्य करते हैं । भगवान्‌को इस तरह जान लेनेसे मनुष्य भगवान्‌की ओर खिंच जाता है‒

उमा  राम  सुभाउ  जेहि  जाना ।

ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥

(मानस ५ । ३४ । २)

‘कर्मभिर्न स बध्यते’भगवान्‌के कर्म तो दिव्य हैं ही, सन्त-महात्माओंके कर्म भी दिव्य हो जाते हैं । वास्तवमें सन्त-महात्मा ही नहीं, मनुष्यमात्र अपने कर्मोंको दिव्य बना सकता है । जब कर्मोंमें मलिनता (कामना, ममता, आसक्ति आदि) होती है, तब वे कर्म बाँधनेवाले हो जाते हैं । जब मलिनताके दूर हो जानेपर कर्म दिव्य हो जाते हैं, तब वे उसे नहीं बाँधते । इतना ही नहीं, वे कर्म उस कर्ताको और दूसरोंको भी (उसके अनुसार आचरण करनेसे) मुक्त करनेवाले हो जाते हैं ।

अपने कर्मोंको दिव्य बनानेका सरल उपाय है‒संसारसे मिली हुई वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानकर (संसारकी और संसारके लिये मानते हुए) संसारकी सेवामें लगा देना ।

विचार करना चाहिये कि हमारे पास शरीर आदि जितनी भी बाह्य वस्तुएँ हैं, उन सबको हम साथ लाये नहीं और जायँगे तब साथ ले जा सकते नहीं, उनके रहते हुए उनमें इच्छानुसार परिवर्तन कर सकते नहीं, उन्हें इच्छानुसार रख सकते नहीं अर्थात् उनपर हमारा कोई आधिपत्य नहीं है । इसी प्रकार जन्म-जन्मान्तरोंसे साथ आये सूक्ष्म और कारण-शरीर भी परिवर्तनशील और प्रकृतिके कार्य हैं, इसलिये उनके साथ भी हमारा सम्बन्ध नहीं है । वे वस्तुएँ अपने लिये भी नहीं हैं; क्योंकि उनके मिलनेपर भी ‘और मिले’ यह इच्छा रहती है । यदि वे वस्तुएँ अपने लिये होतीं तो और मिलनेकी इच्छा नहीं रहती । ऐसा होनेपर भी उन वस्तुओंको अपनी और अपने लिये मानना कितनी बड़ी भूल है ? उन वस्तुओंमें जो अपनापन दीखता है, वह वास्तवमें केवल उनका सदुपयोग करनेके लिये है, उनपर अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं ।

सेवा करनेके लिये तो सब अपने हैं, पर लेनेके लिये कोई अपना नहीं है । संसारकी तो बात ही क्या है, भगवान् भी लेनेके लिये अपने नहीं हैं अर्थात् भगवान्‌से भी कुछ नहीं लेना है, प्रत्युत अपने-आपको ही भगवान्‌के समर्पित करना है । कारण कि जो वस्तु हमें चाहिये और हमारे हितकी है, वह भगवान्‌ने हमें पहलेसे ही बिना माँगे दे रखी है; और ज्यादा दे रखी है, कम नहीं । हमारी जरूरतको जितना भगवान् समझते हैं: उतना हम समझ भी नहीं सकते; क्योंकि भगवान्‌की उदारता अपार है । उनके सामने हमारी समझ तो बहुत ही अल्प है । इसलिये उनसे माँगना किस बातका ? जो कुछ हमें मिला है, उसीका हमें सदुपयोग करना है । वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न मानकर निष्कामभावपूर्वक दूसरोंके हितमें लगा देना ही वस्तुओंका सदुपयोग है । इससे कर्मों और पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और महान् आनन्दस्वरूप परमात्माका अनुभव हो जाता है ।

परिशिष्‍ट भाव‒जैसे सृष्‍टि-रचना आदि करनेपर भी भगवान्‌का अकर्तापन सुरक्षित (ज्यों-का-त्यों) रहता है, ऐसी ही जीवका भी स्वरूपसे अकर्तापन स्वतः सुरक्षित रहता है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । परन्तु वह मूढ़तापूर्वक अपनेमें कर्तापन स्वीकार कर लेता है‒‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) ।

कर्म, क्रिया और लीला‒तीनों एक दीखते हुए भी वास्तवमें सर्वथा भिन्‍न हैं । जो क्रिया कर्तृत्वाभिमानपूर्वक की जाय तथा अनुकूल-प्रतिकूल फल देनेवाली हो, वह क्रिया ‘कर्म’ कहलाती है । जो कर्तृत्वाभिमानपूर्वक न की जाय तथा जो फल देनेवाली भी न हो, वह ‘क्रिया’ होती है; जैसे‒श्‍वासोंका आना-जाना, आँखका खुलना और बन्द होना, नाड़ियोंका चलना, हृदयका धड़कना आदि । जो क्रिया कर्तृत्वाभिमान तथा फलेच्छासे रहित तो होती ही है, साथ-साथ दिव्य तथा दुनियामात्रका हित करनेवाली भी होती है, वह ‘लीला’ होती है । सांसारिक लोंगोंके द्वारा ‘कर्म’ होता है, मुक्त पुरुषोके द्वारा ‘क्रिया’ होती है

१.इसको गीताने ‘चेष्‍टा’ भी कहा है‒‘सदृशं चेष्‍टते’ (३ । ३३) ।

और भगवान्‌के द्वारा ‘लीला’ होती है‒‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ (ब्रह्मसूत्र २ । १ । ३३) अर्थात् जैसे संसार न होते हुए भी दीखता है, ऐसे ही भगवान्‌का सृष्‍टि-रचना आदि कार्य केवल लीलामात्र है । तात्पर्य है कि भगवान् कर्ता न होते हुए भी लीलासे कर्ता दीखते हैं ।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्‍टं गुणकर्मविभागशः’ पदोंसे सिद्ध होता है कि गीता जन्म (उत्पत्ति)-ही जाति मानती है । जो मनुष्य जिस वर्णमें जिस जातिके माता-पितासे पैदा हुआ है, उसीसे उसकी जाति मानी जाती है । ‘जाति’ शब्द ही ‘जनी प्रादुर्भावे’ धातुसे बनता है जो जन्मसे जातिको सिद्ध करता है । कर्मसे तो ‘कृति’ शब्द होता है, जो ‘डुकृञ् करणे’ धातुसे बनता है । हाँ, जातिकी पूर्ण रक्षा उसके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेसे ही होती है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒चारों वर्णोंकी रचना मेरे द्वारा की गयी है‒इस भगवद्‌वचनसे सिद्ध होता है कि वर्ण जन्मसे होता है, कर्मसे नहीं । कर्मसे तो वर्णकी रक्षा होती है ।

जैसे सृष्टि-रचनारूप कर्म करनेपर भी भगवान् अकर्ता ही रहते हैं, ऐसे ही भगवान्‌का अंश जीव भी कर्म करते हुए अकर्ता ही रहता है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । परन्तु जीव अहम्‌से सम्बन्ध जोड़कर अज्ञानवश अपनेको कर्ता मान लेता है‒‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) ।

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