(गत
ब्लॉगसे आगेका)
श्रीतुलसीदासजी
कहते हैं‒
साधन धाम मोच्छ
कर द्वारा ।
पाइ न जेहिं
परलोक सँवारा
॥
सो परत्र दुख
पावइ सिर धुनी
धुनी पछिताइ ।
कालहि कर्महि
ईस्वरहि मिथ्या
दोस लगाइ ॥
इस कथनपर
हमें ध्यान देकर
विचार करना चाहिये
। जो मनुष्य-शरीर
पाकर साधन नहीं
करते, वे कहते हैं‒‘यह
कलियुग है । समय
बड़ा बुरा है । इस
समय चारों ओर पाप-ही-पापका
प्रचार हो रहा
है; सत्य, अहिंसा
आदि धर्मोंका
पालन तथा भगवद्भजन
हो ही नहीं सकता
। यह कलिकाल बड़ा
विकरालयुग है,
सबकी बुद्धि अधर्ममें
लग रही है, क्या
करें, समयकी बलिहारी
है । जब सब-का-सब
वायुमण्डल ही
बिगड़ा हुआ है, तब
एक मनुष्य क्या
कर सकता है । यदि
हम समयके अनुसार
चलें तो पारमार्थिक
साधन नहीं बन पाता
।’ किन्तु इसपर
हमें विचार करना
चाहिये, क्या हम
सचमुच समयके अनुसार
चलते हैं ? कभी नहीं
। जब शीतकाल आता
है, तब गरम कपड़े
बनवाते हैं, आग
आदिका यथोचित
प्रबन्ध करते
हैं, घरमें कमरा
बन्द करके रहते
हैं‒क्या यह समयके
प्रतिकूल चलना
नहीं है ? ऐसे ही
गर्मीके दिनोंमें
ठंडे जल आदिका
प्रयोग करते हैं,
गर्मीसे बचनेके
लिये सतत सावधान
रहते हैं और वर्षामें
भी यथायोग्य उपायोंसे
भी त्राण पानेकी
चेष्टा करते ही
रहते हैं । अर्थात्
सभी समय शरीरकी
प्रतिकूलताके
निवारण, उससे रक्षा
एवं शरीरके अनुकूल
सामग्री जुटानेके
लिये चेष्टा करते
रहते हैं । इसी प्रकार
हमें कलिकालसे
आध्यात्मिकताको
बचानेकी चेष्टा
करनी चाहिये ।
जैसे शरीरकी रक्षा
न करनेपर शरीरका
नाश हो जाता है,
ऐसे ही आध्यात्मिक
जीवनकी रक्षा
न करनेसे उस लाभसे
सर्वथा वंचित
रहनेके लिये बाध्य
होना पड़ेगा ।
अतः समयको
दोष देना मिथ्या
है; क्योंकि आध्यात्मिक
उन्नतिके लिये
कलियुग बहुत उत्तम
माना जाता है । कारण, इसमें भगवद्भजनका
मूल्य बहुत मिलता
है, बड़े सस्तेमें
मुक्ति मिल जाती
है, जैसी कि दूसरे
युगोंमें सम्भव
नहीं थी । श्रीतुलसीदासजी
कहते हैं‒
कलिजुग सम
जुग आन नहिं जौं
नर कर बिस्वास
।
गाइ राम गुन
गन बिमल भव तर बिनहिं
प्रयास ॥
इसलिये
बिना प्रयास ही
जिसमें संसारसमुद्रसे
पार पहुँचा जा
सके, ऐसे कलियुगको
दोष देना सरासर
भूल है ।
इसी प्रकार
जिन कर्मोंके
फलस्वरूप मुक्तिका
साधनरूप मानव-शरीर
प्राप्त हुआ है,
उन कर्मोंको दोष
देना भी मिथ्या
है । क्योंकि‒
बड़े भाग मानुष
तनु पावा । सुर
दुर्लभ सब ग्रंथन्हि
गावा ॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा
। बिनहिं प्रयास
होहिं भव भंगा
॥
ईश्वरने
भी बड़ी भारी कृपा
कर दी कि जिससे
कर्मोंका सब सम्बन्ध
जुटाकर यानी इस
समय मानव-शरीरके
योग्य कर्म न रहनेपर
भी मानव-शरीर देकर
आत्मोद्धारके
लिये सुअवसर दे
दिया । एक राजस्थानी
कविने कहा है‒
करुणाकर कीन्हीं
कृपा, दीन्हीं
नटवर देह ।
ना चिन्हीं
कृतहीन नर खल कर
दीन्हीं खेह ॥
‘करुणानिधि
भगवान्ने कृपा
करके श्रेष्ठ
मनुष्य-शरीर दे
दिया, परन्तु मूर्ख
और कृतघ्न मनुष्यने
उस शरीरको पहचाना
नहीं; प्रत्युत
उसे यों ही मिट्टीमें
मिला दिया ।’
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘जीवनका कर्तव्य’
पुस्तकसे
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