(गत ब्लॉगसे
आगेका)
ऐसे अकारण
कृपालुको यह कहकर
कि ‘क्या करें, भगवान्ने
हमें ऐसा ही बना
दिया, उन्होंने
हमको संसारी बनाकर
घरके काम-धंधोंमें
फँसा दिया, कैसे
भजन करें, भगवान्की
मरजी ही ऐसी है,
वे कराते हैं तभी
हम ऐसा करते हैं’‒इत्यादि
दोष देना मिथ्या
है । तात्पर्य
यह कि मनुष्य स्वयं
तो उद्योग करता
नहीं और दोषारोपण
करता है दूसरोंपर
तथा आप रहना चाहता
है निर्दोष । ऐसे
काम कबतक चलेगा‒‘कैसे निबहै
रामजी रुई-लपेटी
आग ?’
अतः विवेकपूर्वक
विचार करके अपनी
वास्तविक उन्नतिके
लिये कटिबद्ध
होकर तत्परतासे
खूब उत्साहके
साथ लग जाना चाहिये
।
भगवान्ने
चौथी बात कही है‒‘मां भजस्व’ । मुझको भजो । अब
विचारना यह है
कि भगवान्का
स्वरूप क्या है
और उसका भजन क्या
है । आजतक जैसा
देखा, जैसा सुना
और पढ़ा तथा उसके
अनुसार भगवान्का
साकार-निराकार,
सगुण-निर्गुण
आदि जैसा स्वरूप
समझा, वही है भगवान्का
स्वरूप और इस प्रकार
भगवान्के स्वरूपको
सर्वोपरि तथा
परम प्रापणीय
समझकर एकमात्र
उनके शरण हो जाना
ही भजन है । अर्थात्
जिह्वासे नामका
जप, मनसे उनके स्वरूपका
चिन्तन और बुद्धिसे
उनका निश्चय करना
तथा शरीरसे उनकी
आज्ञाओंका पालन
करना; एवं सब कुछ
उन्हींके समर्पण
कर देना और उनके
प्रत्येक विधानमें
परम सन्तुष्ट
रहना‒यह है भगवद्भजन
।
अब भगवद्भजनरूप
शरणागतिके चारों
प्रकारोंका कुछ
स्पष्टीकरण किया
जाता है ।
भगवान्के
स्वरूपका चिन्तन
करते हुए उनके
परम पावन नामका
नित्य-निरन्तर
निष्कामभावसे
परम श्रद्धापूर्वक
जप करना और उन्हीं
भगवान्के गुण,
प्रभाव, लीला आदिका
मनन, चिन्तन, श्रवण
और कथन करते रहना
एवं चलते-बैठते,
सोते-जागते, खाते-पीते
हर समय भगवान्की
स्मृति रखना‒यह
शरणका पहला प्रकार
है ।
दूसरा प्रकार
है‒भगवान्की
आज्ञाओंका पालन
करना । इसमें
केवल इस बातकी
ओर ध्यान देना
है कि कहीं मन, इन्द्रियोंके
और शरीरके कहनेमें
आकर केवल उनकी
अनुकूलतामें
ही न लग जाय; बल्कि
यह विचार बना रहे
कि भगवान्की
आज्ञा क्या है‒और
यही विचारकर काम
करता रहे । भगवदाज्ञा
क्या है ? और वह कैसे
प्राप्त हो ? इसका
उत्तर यह है कि
एक तो श्रीमद्भगवद्गीता-जैसे
भगवान्के श्रीमुखके
वचन हैं ही । दूसरे
भगवत्प्राप्त
महापुरुषोंके
वचन भी भगवदाज्ञा
ही हैं; क्योंकि
जिस अन्तःकरणमें
स्वार्थ और अहंकार
नहीं रहा, वहाँ
केवल भगवान्की
आज्ञासे ही स्फुरणा
और चेष्टाएँ होती
रहती हैं । तीसरे
उन महापुरुषोंके
आचरण भी हमारे
लिये आदर्श हैं;
क्योंकि भगवान्ने
कहा है‒
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो
जनः ।
स यत्प्रमाणं
कुरुते लोकस्तदनुवर्तते
॥
(गीता
३/२१)
‘श्रेष्ठ
पुरुष जो-जो आचरण
करता है, अन्य पुरुष
भी वैसा-वैसा ही
आचरण करते हैं
। वह जो कुछ प्रमाण
कर देता है, समस्त
मनुष्य-समुदाय
उसीके अनुसार
बर्तने लग जाता
है ।’
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘जीवनका कर्तव्य’
पुस्तकसे
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