आजकी शुभ
तिथि–
भाद्रपद
कृष्ण
द्वादशी, वि.सं.–२०७०,
सोमवार
सब कुछ भगवान्
ही हैं
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(गत
ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒जब
सब कुछ भगवान्
ही हैं तो फिर सात्त्विक-राजस-तामस
भाव त्याज्य क्यों
हैं ?
उत्तर‒जैसे
जमीनमें जल सब
जगह रहता है, पर
उसका प्राप्तिस्थान
कुआँ है, ऐसे ही
भगवान् सब जगह
हैं, पर उनका प्राप्तिस्थान
हृदय है‒‘हृदि
सर्वस्य विष्ठितम्’
(गीता १३/१७), ‘सर्वस्य चाहं
हृदि सन्निविष्टः’
(गीता १५/१५) । परन्तु
सात्त्विक-राजस-तामस
भाव भगवान्के
प्राप्तिस्थान
नहीं हैं । अतः
ये साधकके लिये
कामके नहीं हैं
। इसीलिये भगवान्ने
कहा है कि वे भाव
मेरेसे होनेपर
भी मैं उनमें और
वे मेरेमें नहीं
है‒
ये चैव सात्त्विका
भावा राजसास्तामसाश्च
ये ।
मत्त एवेति
तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
(गीता ७/१२)
जैसे, बाजरीकी
खेतीमें बाजरी
ही मुख्य होती
है, पत्ती-डंठल
नहीं । किसानका
लक्ष्य बाजरीको
प्राप्त करनेका
ही होता है । बाजरीको
प्राप्त करनेके
लिये वह खेतीको
जल, खाद आदिसे पुष्ट
करता है, बढ़िया
बाजरी प्राप्त
हो सके । ऐसे ही
साधकका लक्ष्य
भी केवल भगवान्का
होना चाहिये, संसारका
नहीं । भगवान्को
प्राप्त करनेके
लिये साधकको संसारकी
सेवा करनी चाहिये
। सेवाके सिवाय
संसारसे अपना
कोई मतलब नहीं
रखना चाहिये ।
महत्त्व बाजरी
(दाने) का है, पत्ती-डंठलका
नहीं; क्योंकि
आरम्भमें भी बाजरी
रहती है और अन्तमें
भी बाजरी ही रहती
है । बाजरी प्राप्त
करनेके बाद जो
शेष बचता है, वह
(पत्ती-डंठल) अपने
लिये किसी कामकी
चीज नहीं है, प्रत्युत
पशुओंके खानेकी
चीज है । ऐसे ही
सात्त्विक-राजस-तामस
भाव संसारके व्यवहारके
लिये हैं, अपने
लिये नहीं ।
जैसे बाजरी
(बीज) से पत्ती-डंठल
पैदा होनेपर भी
पत्ती-डंठलमें
बाजरी नहीं है
और बाजरीमें पत्ती-डंठल
नहीं हैं, ऐसे ही
भगवान्से पैदा
होनेपर भी सात्त्विक-राजस-तामस
भावोंमें भगवान्
नहीं हैं और भगवान्में
सात्त्विक-राजस-तामस
भाव नहीं हैं‒‘न त्वहं तेषु
ते मयि ।’
जैसे पत्ती-डंठल
उत्पन्न और नष्ट
होनेवाले हैं
तथा उनमें बाजरी
नहीं दीखती, फिर
भी पत्ती-डंठल
बाजरीसे अलग नहीं
हैं । कारण कि उनके
आरम्भमें भी बाजरी
थी और अन्तमें
भी बाजरी रहेगी
। ऐसे ही संसार
उत्पत्ति-विनाशशील
है और उसमें भगवान्
नहीं दीखते, फिर
भी संसार भगवान्से
अलग नहीं है । कारण
कि संसारके आदिमें
भी भगवान् थे
और अन्तमें भी
भगवान् रहेंगे
। जैसे तत्त्वकी
दृष्टिसे न देखनेवाला
अनजान आदमी बाजरीको
देखकर कहता है
कि यह तो केवल घास-ही-घास
है, बाजरी कैसे
हुई ? ऐसे ही अज्ञानी
मनुष्य कहता है
कि जो दीखता है,
वह तो संसार है,
भगवान् कैसे
हुए ?* परन्तु जो
तत्त्वसे देखते
हैं, उन ज्ञानी
महापुरुषोंकी
दृष्टिमें संसार
है ही नहीं, प्रत्युत
सब कुछ भगवान्
ही हैं‒‘वासुदेवः
सर्वम्’ । जो बाजरीको
देखते हैं, वही
वास्तवमें मनुष्य
हैं । जो केवल घासको
ही देखते हैं, वे
तो पशु हैं ! कारण
कि मनुष्य तो घासका
त्याग करके बाजरीको
ग्रहण करते हैं,
पर पशु कोरी घास
ही चबाते हैं ! क्योंकि
उनकी दृष्टिमें
घासके सिवाय और
कुछ है ही नहीं‒‘कामोपभोगपरमा
एतावदिति निश्चिताः’
(गीता १६/११) ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण
!!!
‒ ‘भगवान्
और उनकी भक्ति’
पुस्तकसे
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त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं
नाभिजानाति मामेभ्यः
परमव्ययम् ॥
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