(गत
ब्लॉगसे आगेका)
उपर्युक्त
विवेचनसे सिद्ध
हुआ कि ‘योगः
कर्मसु कौशलम्’ पदोंका अर्थ ‘कर्मोंमें
कुशलता ही योग
है’‒ऐसा न मानकर
‘कर्मोंमें योग
ही कुशलता है’‒ऐसा
ही मानना चाहिये
। अब ‘योग’ क्या है‒इसपर
विचार किया जाता
है ।
गीतामें
‘योग’ शब्दके तीन
अर्थ हैं‒(१) समता,
जैसे‒‘समत्वं
योग उच्यते’ (२/४८);
(२) सामर्थ्य, ऐश्वर्य,
प्रभाव; जैसे‒‘पश्य मे योगमैश्वरम्’
(९/५); और (३) समाधि;
जैसे‒‘यत्रोपरमते
चित्तं निरुद्धं
योगसेवया’ (६/२०) । यद्यपि गीतामें
‘योग’ का अर्थ मुख्यतासे
‘समता’ ही है, तथापि
‘योग’ शब्दके अन्तर्गत
तीनों ही अर्थ
लेने चाहिये ।
पातंजलयोगदर्शनमें
चित्तवृत्तियोंके
निरोधको ‘योग’ कहा
गया है‒‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’
(१/२) । इस योगके
परिणामस्वरूप
दृष्टाकी स्वरूपमें
स्थिति हो जाती
है‒‘तदा द्रष्टुःस्वरूपेऽवस्थानम्’
(१/३) । इस प्रकार
पातंजलयोगदर्शनमें
योगका जो परिणाम
बताया गया है, उसीको
गीता ‘योग’ कहती
है*
। तात्पर्य
यह है कि गीता चित्तवृत्तियोंसे
सर्वथा सबम्ध-विच्छेदपूर्वक
स्वतःसिद्ध सम-स्वरूपमें
स्वाभाविक स्थितिको
‘योग’ कहती है । इस
समतामें स्थित
होनेपर फिर कभी
इससे वियोग अर्थात्
व्युत्थान नहीं
होता, इसलिये इसको
‘नित्ययोग’ कहते
हैं । चित्तवृत्तियोंका
निरोध होनेपर
तो ‘निर्विकल्प
अवस्था’ होती है,
पर समतामें स्वतःसिद्ध
स्थितिका अनुभव
होनेपर ‘निर्विकल्प
बोध’ होता है । निर्विकल्प
बोध अवस्था नहीं
है, प्रत्युत सम्पूर्ण
अवस्थाओंसे अतीत
तथा उनका प्रकाशक
एवं सम्पूर्ण
योग-साधनोंका
फल है । इस प्रकार
गीताका योग पातंजलयोगदर्शनके
योगसे बहुत विलक्षण
है ।
परमात्मा
सम हैं‒‘निर्दोषं
हि समं ब्रह्म’
(गीता ५/१९) । जीव
परमात्माका अंश
है‒‘ममैवांशो
जीवलोके’ (गीता
१५/७); अतः समरूप
परमात्माके साथ
जीवका सम्बन्ध
अर्थात् योग नित्य
है । इस स्वतःसिद्ध
नित्ययोगका ही
नाम ‘योग’ है । यह
नित्ययोग सब देशमें
है, सब कालमें है,
सब क्रियाओंमें
है, सब वस्तुओंमें
है, सब व्यक्तियोंमें
है, सब अवस्थाओंमें
है, सब परिस्थितियोंमें
है, सब घटनाओंमें
है । तात्पर्य
है कि इस नित्ययोगका
कभी वियोग हुआ
नहीं, है नहीं, होगा
नहीं और हो सकता
नहीं । परन्तु
असत् (शरीर) के
साथ अपना सम्बन्ध
मान लेनेसे इस
नित्ययोगका अनुभव
नहीं होता । दुःखरूप
असत्के साथ माने
हुए संयोगका वियोग
(सम्बन्ध-विच्छेद)
होते ही इस नित्ययोगका
अनुभव हो जाता
है‒‘तं विद्याद्
दुःखसंयोगवियोगं
योगसंज्ञितम्’
(गीता ६/२३) । यही
गीताका मुख्य
योग है और इसी योगका
अनुभव करनेके
लिये गीताने कर्मयोग,
ज्ञानयोग, भक्तियोग,
ध्यानयोग आदि
साधनोंका वर्णन
किया है । परन्तु
इन साधनोंको योग
तभी कहा जायगा,
जब असत्से सम्बन्ध-विच्छेद
और परमात्माके
साथ नित्य सम्बन्धका
अनुभव होगा ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
* ‘समत्वं
योग उच्यते’ (२/४८)
। ‘समताको
ही योग कहा जाता
है’ और ‘तं विद्याद्
दुःखसंयोगवियोगं
योगसंज्ञितम्’
(गीता ६/२३) । ‘जिसमें दुःखोंके
संयोगका वियोग
है, उसको योग नामसे
जानना चाहिये’‒ये
दोनों ही भगवान्की
दृष्टिमें ‘योग’
की परिभाषाएँ हैं
।
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