Oct
01
(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
यदि आप
ठीक विचार
करेंगे तो
आपको ज्ञात
हो जायगा कि सदा साथ
रहनेवाले तो
केवल एक वे
परम कृपामय
परमात्मा ही
हैं । अतएव
आपको
उन्हींके चरणोंकी
शरण लेनी
चाहिये ।
ध्यान
दें ! यह जीव
परमात्माका
अंश है–‘ममैवांशः’ (गीता १५
। ७ ) ‘ईस्वर
अंस जीव
अबिनासी ।’ ( मानस
) परमात्मा
सर्वोत्तम
हैं; उनका अंश
होनेसे इस
जीवको अपनी
निम्न
स्थिति नहीं
सुहाती । यह
नीचे नहीं
रहना चाहता ।
सर्वोत्तमताकी
ओर इसकी
उत्सुकता
निरन्तर बनी
ही रहती है ।
यह अपनेको
सर्वोच्च
पदपर
नियुक्त करनेके
लिये
प्रयत्नशील
रहता है ।
कारण यही है कि
यह
परमात्माका
अंश है और
परमात्मा सबसे
ऊँचे हैं,
इसलिये
यह भी ऊपर
उठना चाहता
है । जिस किसी
क्षेत्रमें
रहता है,
वहाँ
ऊपर ही उठना
चाहता है ।
ऊपर
उठनेके लिये
दो बातोंकी
ओर ध्यान
दिया जाय तो
बहुत शीघ्र
ऊपर उठा जा
सकता है । एक
तो है-–‘करना’ और दूसरा है–‘होना’, जैसे हम
व्यापार
करते हैं और
उसमें नफा-नुकसान
होता है । अतः करनेमें
हर समय
सावधान रहें, जिससे पतन हो
ऐसा कार्य
करें ही नहीं
। और
होनेमें हर
समय प्रसन्न
रहें । जो कुछ हो
रहा है, हमारे
पूर्वकृत
कर्मोंके
फलस्वरूप हो
रहा है और वह
है हमारे
प्रभुका
मंगलमय
विधान । इस धारणाकी
सिद्धि तो तब
होगी, जब हमारी
दृष्टि
हमारे
लक्ष्यपर
स्थिर बनी
रहेगी । ऐसा
करनेवालोंकी
उन्नति होती
ही है, वह ऊपर
उठता ही है–यह नियम
है । पतनका
कारण है–हम
करनेमें तो
सावधानी
नहीं रखते और
जो होता है,
उसमें–अनुकूलमें
प्रसन्न और
प्रतिकूलमें
अप्रसन्न हो
जाते हैं ।
करनेमें
हर समय
सावधान रहें
। सावधानका
अर्थ यह है कि
न करनेयोग्य
कामको न करें
एवं जो न हो
सके, उसकी
चिन्ता भी न
करें । अर्थात्
शास्त्रोंके
विरुद्ध,
लोक-मर्यादाके
विरुद्ध काम
तो करें ही
नहीं, साथ ही धन,
मान,
बड़ाई,
पद,
अधिकार
आदिको, जिनकी
प्राप्ति
हमारे चाहनेपर
भी हमारे
वशकी बात
नहीं है,
पानेकी
भी चिन्ता न
करें । न
करनेयोग्य
कामका विचार
छोड़नेसे एवं
जो नहीं हो
सकता, उसकी चिन्ता
छोड़ देनेसे
आवश्यक
कामके करनेका
बल, योग्यता
और उत्साह आ
जाता है । गीतामें
श्रीभगवान्ने
अर्जुनसे
यही बात इस
प्रकार कही
है‒कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु
कदाचन ।’ (२/४७)–‘तुम्हारा
कर्ममें
अधिकार है
फलोंमें
कदापि नहीं ।’ अतः मनुष्यको
फलासक्तिको
त्यागकर
कर्म करना
चाहिये ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘सर्वोच्च
पदकी
प्राप्तिका
साधन’
पुस्तकसे
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