Oct
02
(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
कर्तव्य
कर्म वही
होता है, जिसमें अपने
स्वार्थका
त्याग एवं
दूसरेका हित
होता हो ।
स्वार्थ-बुद्धिसे
किया जानेवाला
कर्म
कर्तव्य
नहीं, कर्म है
। यह तो
कर्माधिकाररहित
पशु-पक्षी
आदि योनियोंमें
भी पाया जाता
है । तब फिर
मानव-जीवनकी
क्या
सार्थकता
हुई ! अतः
मनुष्यको
चाहिये कि
अपने स्वार्थको
त्यागकर
दूसरोंको
सुख
पहुँचानेकी
चेष्टा करे । सुखकी
अपेक्षा भी
हमारी
दृष्टि उनके
हितकी ओर
अधिक रहनी
चाहिये । नीतिकार
कहते हैं–
संतोषस्त्रिषु
कर्तव्य:
स्वदारे भोजने
धने ।
त्रिषु
चैव न
कर्तव्यः
स्वाध्याये
जपदानयोः ॥
अर्थात्
स्त्री,
भोजन
और धनके
विषयमें
संतोष करना
चाहिये,
क्योंकि
ये तो
पूर्वजन्मोंके
कर्मोंके
फलस्वरूप
प्राप्त हुए
हैं । स्वाध्याय,
जप
और दानमें
संतोष नहीं
करना चाहिये,
क्योंकि
वे नये कर्म
हैं । उनमें
यदि कोई संतोष
करेगा तो वह
कर्तव्यसे
च्युत हो
जायगा । अत: कर्तव्य
कर्ममें
तत्परतासे
सदा लगे रहना
चाहिये ।
धन-सम्पत्ति
आदिके
विषयमें
नीति हमें
संतोष
करनेको कहती
है । इसका आशय
यह है कि हम धन
आदिकी
प्राप्तिमें
संतुष्ट
रहें–जो कुछ भी
मिल जाय,
उसके
प्रति हमारे
मनमें
असंतोष न हो;
परंतु
कर्तव्य-कर्मके
अनुष्ठानमें
हम कभी कमी न
लायें ।
यह
प्राकृतिक
नियम है कि
मनुष्यकी
जिस काममें
लगन होती है,
उसे
वह तत्परतासे
करता है और
लगनवालेकी
उन्नति भी
होती ही है ।
आज
देशमें जो
बेकारी
सर्वत्र
व्याप्त है, इसके अनेक
कारणोंमें
एक प्रमुख
कारण यह भी है कि
लोग अपना
कर्तव्य
कर्म नहीं
करते । यदि
उत्तम-से-उत्तम
काममें
मनुष्य
निरन्तर लगा
रहे, स्वाद,
शौकीनी,
सजावटको
छोड़कर साधारण
वस्तुओंसे
ही अपना
जीवन-निर्वाह
कर ले, दूसरेके हित
और सेवामें
अपनी
वस्तुओंका
और अपनी
शक्तिका
विनियोग करे, दूसरोंके
अधिकारकी
रक्षा करे, दूसरेका हक
कभी अपने
हकमें न आने
दे और दक्षतापूर्वक
अपना
कर्तव्य
कर्म करता
रहे तो उसे बेकारी
नहीं सताती । जो यह कहा जाता
है कि ‘हमारे
प्रारब्धमें
जो है वह
अवश्य
मिलेगा’, इसका
प्रयोजन
चिन्ता न
करनेमें है, न कि
क्रियारहित
होनेमें; अत: कर्तव्य
कर्म
करनेमें कभी
कमी नहीं
लानी चाहिये
। इस प्रकार
लगनके साथ
काम
करनेवालेकी
व्यावहारिक
एवं
पारमार्थिक–दोनों
प्रकारकी
उन्नति होती
ही है । पर
दोनोंमें एक
अन्तर रहता
है ।
व्यावहारिक
उन्नतिके
लिये लगनके
साथ कर्म
करनेवालोंमें
कार्यकुशलता–कार्य
करनेकी
योग्यता तो
बढ़ती है,
पर
उन्हें
धन-सम्पत्ति,
मान-बड़ाई,
आदर-सत्कार
आदि भी मिलें
ही–यह नियम
नहीं है ।
क्योंकि ये
सब पूर्वकृत
कर्मोंके–प्रारब्धके
अधीन हैं ।
इसके विपरीत,
पारमार्थिक
उन्नतिके
लिये चेष्टा
करनेवालेको
सफलता मिलती
ही है
अर्थात्
उसके अन्दर
प्रेम, बोध,
शान्ति,
उत्साह
तथा
प्रमाद-आलस्यका
त्याग और
कार्य-कुशलता
आदि गुण
अवश्य आते
हैं एवं उसके
द्वारा तत्परतासे
काम भी होता
है; क्योंकि
ये उसकी निजी
वस्तुएँ हैं
।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘सर्वोच्च
पदकी
प्राप्तिका
साधन’
पुस्तकसे
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