(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
ऐसा
अन्तर क्यों
होता है ?
इसका
उत्तर यह है
कि मानव-शरीर
हमें मिला है
परमात्माकी
ही
प्राप्तिके
लिये ।
इसलिये पारमार्थिक
उन्नति चाहनेवालेको
लगनसे कार्य
करनेपर वह
अवश्य मिलेगी
। हाँ यदि कोई
चेष्टा ही न
करे तो उसे वह किस
तरह मिलेगी ।
इसके विपरीत,
व्यावहारिक
वस्तुओंकी
प्राप्तिमें
प्रारब्ध ही
प्रधान है ।
प्रारब्ध
अनुकूल होगा
तो वस्तु मिल
जायगी, पर यत्न करनेसे
वह मिल ही जाय–यह नियम
नहीं है ।
इसका
तात्पर्य यह
है–परमार्थ
(आध्यात्मिकता)
की
प्राप्तिमें
अभिलाषा–लगनकी
प्रधानता है
और सांसारिक
वस्तुओंकी प्राप्तिमें
प्रारब्धकी
प्रधानता है
। अत: मनुष्यको
कभी
आलस्य-प्रमादमें
समय नहीं
बिताना
चाहिये तथा
जप, स्वाध्याय, शास्त्रोंका
मनन और सबके
हितका चिन्तन
सदा करते
रहना चाहिये
।
सबके
हितकी बात
सोचनेसे
सबका हित
होता है,
पर स्थूल
बुद्धिवाले
इस बातको
नहीं समझते । स्थूल वस्तु
तो एकदेशीय
होती है;
परंतु
सूक्ष्म
वस्तु
व्यापक होती
है, वह सब जगह
फैलती है ।
विचार
सूक्ष्म
होते हैं,
अत:
सबके हितका
भाव मनमें
आनेसे वैसा
ही
वायुमण्डल
बनता है,
जिससे
सबको सुख
पहुँचता है ।
इसीलिये
भगवान् कहते
हैं–‘ते
प्राप्नुवन्ति
मामेव
सर्वभूतहिते
रता: ॥’ (गीता१२/४)
–‘जिनके
अन्दर सबके
हितकी भावना
है, वे
परमात्मतत्त्वको
प्राप्त
होते हैं ।’ जिसके
अन्तःकरणमें
राग-द्वेष न
होकर सबके हितकी
भावना होती
है उसकी
समष्टिके
साथ एकता हो
जाती है ।
गीतामें
भगवान्ने
कहा है–‘सुहृदं
सर्वभूतानां
ज्ञात्वा
मां शान्तिमृच्छति
॥’ (गीता५/२९) ‘मुझ
(भगवान्) को
प्राणिमात्रका
सुहृद्
जाननेवालेको
शान्ति
मिलती है ।’ ऐसी
स्थितिमें
जिसमें सबके
हितकी भावना
होती है,
जो
सबके भलेका
ही भाव रखता
है, अर्थात्
जो ‘सर्वे
भवन्तु
सुखिन:’–सब-के-सब
सुखी हो जायँ ‘सर्वे
सन्तु
निरामयाः’–सब-के-सब
नीरोग रहें,
‘सर्वे
भद्राणि
पश्यन्तु’–सबका
मंगल-ही-मंगल
हो, ‘मा
कश्चिद्
दुःखभाग्
भवेत्’–किसीको
किञ्चिन्मात्र
भी दुःख न हो–ऐसा भाव
अपने मनमें
रखता है,
उसकी
उस भावनाकी
प्राणिमात्रके
सुहृद् भगवान्की
भावनाके साथ
एकता हो जाती
है ।
परमात्माकी भावनाके
साथ एकता
होनेसे उसकी
सहज ही
परमात्मासे
अभिन्नता हो
जाती है ।
परन्तु यदि
वह अभिमान कर
लेता है तो यह
शक्ति नहीं
मिलती ।
शास्त्रोंका
आदेश है–देवताओंका
पूजन देवता
बनकर करे–‘देवो
भूत्वा
यजेद् देवम्
।’ इसी
प्रकार
मन्त्रको
सिद्ध करना
हो तो मन्त्रका
अपनेमें
न्यास करके
स्वयं
मन्त्ररूप
बनना पड़ता है
। इसी प्रकार
सबके हितका
भाव जिनके
मनमें रहता
है, वे
परमात्मतत्त्वको
प्राप्त कर
लेते हैं । अत: सबका हित करनेमें
हर समय तत्पर
रहना ही
परमात्माको
प्राप्त
करनेका सबसे
उत्तम सरल
उपाय है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘सर्वोच्च
पदकी
प्राप्तिका
साधन’
पुस्तकसे
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