(गत ब्लॉगसे आगेका)
तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत्तन्न । आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां पाञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वाज्जरामरण धर्माधर्मादिसाम्यदर्शनाद्- ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्ण इति नियमाभावात् । पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्महत्यादिदोषसम्भवाच्च । तस्मान्न देही ब्राह्मण इति ॥
‘तो क्या देह ब्राह्मण है ? नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता । चाण्डालसे लेकर मनुष्यपर्यन्त सबके शरीर पांचभौतिक होनेसे एकरूप ही हैं । जरा-मृत्यु, धर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) आदि भी सबके समान ही देखे जाते हैं । ब्राह्मणका श्वेतवर्ण, क्षत्रियका लाल वर्ण, वैश्यका पीला वर्ण और शूद्रका काला वर्ण होता है‒ऐसा नियम भी नहीं है । यदि देहको ब्राह्मण मानें तो पिता आदिके मृत शरीरको जलानेसे पुत्र आदिको ब्रह्महत्या आदि पाप लगनेकी सम्भावना रहती है । अतः देह ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि जातिर्ब्राह्मण इति चेत्तन्न । तत्र जात्यन्तरजन्तुष्वनेक जातिसम्भवा महर्षयो बहवः सन्ति । ऋष्यशृङ्गो मृग्याः, कौशिकः कुशात्, जाम्बूको जष्ठकात्,वाल्मीको वल्मीकात्, व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्, शशपृष्ठाद् गौतमः, वसिष्ठ उर्वश्यामू, अगस्त्यः कलशे जात इति श्रुतत्वात् । एतेषां जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति । तस्मान्न जातिर्ब्राह्मण इति ॥
‘तो क्या जाति ब्राह्मण है ? नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता । विभिन्न जातिवाले प्राणियोंसे अनेक जातिवाले बहुत-से महर्षि उत्पन्न हुए हैं; जैसे‒मृगीसे ऋष्यशृंग, कुशसे कौशिक, जम्बूक (सियार) से जाम्बूक, वल्मीकसे वाल्मीकि,मल्लाहकी कन्यासे व्यास, शशपृष्ठ (खरगोशकी पीठ) से गौतम, उर्वशीसे वसिष्ठ, कलश (घट) से अगस्त्य उत्पन्न हुए‒ऐसा सुना जाता है । इनमें जातिके बिना भी पहले बहुत-से पूर्ण ज्ञानवान् ऋषि हुए हैं । अतः जाति ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत्तन्न । क्षत्रियादयोऽपि परमार्थ दर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति । तस्मान्न ज्ञानं ब्राह्मण इति ॥
‘तो क्या ज्ञान ब्राह्मण है ? नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता । बहुत-से ( जनक, अश्वपति आदि) क्षत्रिय आदि भी परमार्थको जाननेवाले तत्त्वज्ञ हुए हैं । अतः ज्ञान ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेत्तन्न । सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्ध सञ्चितागामिकर्मसाधर्भ्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः सन्तो जनाः कियाः कुर्वन्तीति । तस्मान्न कर्म ब्राह्मण इति ॥
‘तो क्या कर्म ब्राह्मण है ? नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता । सम्पूर्ण प्राणियोंमें प्रारब्ध, संचित तथा क्रियमाण कर्मोंमें सधर्मता देखी जाती है और कर्मोंसे प्रेरित होकर वे मनुष्य क्रिया करते हैं । अतः कर्म ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत्तन्न । क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः सन्ति । तस्मान्न धार्मिको ब्राह्मण इति ॥’
‘तो क्या धार्मिक व्यक्ति ब्राह्मण है ? नहीं, ऐसा भी नहीं हो सकता । बहुत-से क्षत्रिय आदि भी स्वर्णका दान करनेवाले हुए हैं । अतः धार्मिक व्यक्ति ब्राह्मण नहीं है ।’
तर्हि को वा ब्राह्मणो नाम । यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मिषड्भावे-त्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन वर्तमान-मन्तर्बहिश्चाकाशवदनुस्थूतमखण्डानन्दस्वभावमप्रमेयमनु-भवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतलामलकवत्साक्षाद-परोक्षीकृत्य कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नभावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो दम्भाहंकारादिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एवं ब्राह्मण इति श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासानामभिप्रायः । अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव ॥
‘तो फिर ब्राह्मण नाम किसका है ? जो कोई अद्वितीय आत्मा जाति, गुण तथा क्रियासे रहित है, छः ऊर्मियों तथा छः विकारों[*] आदि समस्त दोषोंसे रहित है, सत्-चित्-आनन्द तथा अनन्तस्वरूप है, स्वयं निर्विकल्प है, अनन्त कल्पोंका आधार है, अनन्त प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे रहनेवाला है, सदा वर्तमान (नित्य रहनेवाला) है आकाशकी तरह सबके भीतर-बाहर परिपूर्ण है, अखण्ड आनन्द स्वभाववाला है, अप्रमेय है अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरणका विषय नहीं है, केवल अनुभवसे जाननेयोग्य है तथा अपरोक्षरूपसे प्रकाशित होनेवाला है, उस परमात्मतत्त्वका हस्तामलककी तरह साक्षात्कार करके जो कृतकृत्य (ज्ञात-ज्ञातव्य, प्राप्तप्राप्तव्य) हो गया है और जो काम, राग आदि दोषोंसे रहित है; शम, दम आदिसे सम्पन्न भाववाला है; मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदिसे रहित है;और जिसका चित्त दम्भ, अहङ्कार आदि दोषोंसे निर्लिप्त है,वही वास्तविक ब्राह्मण है‒ऐसा श्रुति, स्मृति, पुराण एवं इतिहासका अभिप्राय है । इसके सिवाय अन्य किसी भी प्रकारसे ब्राह्मणत्वकी सिद्धि नहीं होती ।’
सच्चिदानन्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदात्मानं सच्चिदानन्दं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ॥
‘आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप अद्वितीय ब्रह्म है (उसका साक्षात्कार करनेवाले ब्राह्मण हैं)‒ऐसा मानना चाहिये । आत्माको सच्चिदानन्दस्वरूप अद्वितीय ब्रह्म मानना चाहिये । यह उपनिषद् है ।’
वज्रसूचिकोपनिषद् समाप्त ॥
शान्तिपाठ
‘ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत् अनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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[*] भूख, प्यास, शोक, मोह, जन्म तथा मृत्यु‒ये छः उर्मियाँ हैं । उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना‒यह छः विकार हैं ।
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