श्रीमद्भगवद्गीतामें भक्तिकी विशेष महिमा आती है । जब भगवान्ने अर्जुनकी प्रार्थना सुनकर अपना विश्वरूप दिखाया, तब उस विश्वरूपके लिये भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि तेरे सिवाय ऐसा रूप पहले किसीने भी नहीं देखा है और देखा जा भी नहीं सकता (गीता ११ । ४७-४८) । फिर पुन: अर्जुनके द्वारा प्रार्थना करनेपर भगवान्ने अपना चतुर्भुज (विष्णु) रूप दिखाया और उसके लिये अर्जुनसे कहा‒
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥
(गीता ११ । ५३)
‘जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकारका (चतुर्भुज-रूपवाला) मैं न तो वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ ।’
जब किसी भी साधनसे नहीं देखे जा सकते तो फिर किसके द्वारा देखे जा सकते हैं ? इसपर भगवान् कहते हैं‒
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
(गीता ११ । ५४)
‘परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार (चतुर्भुज- रूपवाला) मैं अनन्यभक्तिसे ही तत्त्वसे जाना जा सकता हूँ, देखा जा सकता हूँ और प्रवेश (प्राप्त) किया जा सकता हूँ ।’
यहाँ ध्यान देनेकी बात यह है कि भक्तिसे जानना,देखना और प्रवेश करना‒तीनों हो सकते हैं । परन्तु जहाँ भगवान्ने ज्ञानकी परानिष्ठा बतायी है, वहाँ ज्ञानसे केवल जानना और प्रवेश करना ये दो ही बताये गये हैं‒‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता १८ । ५५) ।भक्तिसे भगवान्के दर्शन भी हो सकते हैं‒यह भक्तिकी विशेषता है, जबकि ज्ञानकी परानिष्ठा होनेपर भी भगवान्के दर्शन नहीं होते !
रामायणमें भी भक्तिकी विशेष महिमा बतायी गयी है । उसमें ज्ञानको तो दीपककी तरह बताया है, पर भक्तको मणिकी तरह बताया है (मानस, उत्तर॰ ११७‒१२०) । दीपकको जलानेमें तो घी, बत्ती आदिकी जरूरत होती है और हवा लगनेसे वह बुझ भी जाता है, पर मणिके लिये न तो घी,बत्ती आदिकी जरूरत है और न वह हवासे बुझती ही है‒
परम प्रकास रूप दिन राती ।
नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा ।
लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई ।
हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥
(मानस, उत्तर॰ १२० । २-३)
इतना ही नहीं, जो मुक्ति ज्ञानके द्वारा बड़ी कठिनतासे प्राप्त होती है, वही मुक्ति भगवान्का भजन करनेसे बिना इच्छा अपने-आप प्राप्त हो जाती है‒
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद ।
संत पुरान निगम आगम बद ॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं ।
अनइच्छित आवइ बरिआई ॥
(मानस, उत्तर॰ १११ । २)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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