।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, रविवार
भगवान्‌ और उनकी भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
इसलिये ज्ञानमार्गको तो बड़ा कठिन बताया गया है‒‘ग्यान पंथ कृपान कै धारा’ (मानसउत्तर १११ । १),पर भक्तिमार्गको बड़ा सुगम बताया गया है ‒‘भगति कि साधन कहउँ बखानी  सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रान ॥’(मानसअरण्य १६ । ३) भगवान्‌ने भी भक्तोंके लिये अपनी प्राप्ति बड़ी सुगम बतायी है‒
अनन्यचेता सततं यो  मां स्मरति नित्यश: ।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन: ॥
                                                                             (गीता ८ । १४)
‘हे पार्थ ! अनन्य चित्तवाला जो भक्त नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करता है उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ ।’

ज्ञानमार्गपर चलनेवाला तो अपने साधनका बल मानता हैपर भक्तकी यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधनका बल मानता ही नहीं । कारण कि मैं इतना जप करता हूँइतना तप करता हूँइतना ध्यान करता हूँइतना सत्संग करता हूँ‒इस तरह भीतरमें अभिमान रहनेसे भक्ति प्राप्त नहीं होती । जिनका सीधा-सरल स्वभाव हैजो भगवान्‌की कृपापर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थितिमें मस्तआनन्दित रहते हैंउन्हींको भक्ति प्राप्त होती है‒
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा ।
जोग न मख जप तप उपवासा ॥
सरल सुभाव  न  मन कुटिलाई ।
जथा   लाभ    संतोष    सदाई ॥
                                                             (मानसउत्तर ४६ । १)

जबतक अपने साधनका अभिमान रहता हैतबतक असली भक्ति प्राप्त नहीं होती । भक्ति प्राप्त होनेपर भक्तके मनमें यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ । जैसे,हनुमान्‌जी महाराज कहते हैं‒‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’(मानसकिष्किन्धा ३ । २) । हनुमान्‌जी भक्तिके खास आचार्य होते हुए भी कहते हैं कि मैं भजनका उपाय नहीं जानता कि भजन क्या होता है कैसे होता है शबरीको पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकारकी होती है और वह मेरेमें पूर्णरूपसे विद्यमान है ! वह कहती है‒
अधम ते अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह  महँ  मैं  मतिमंद  अघारी ॥
                                                                 (मानसअरण्य ३५ । २)

परन्तु भगवान् उसको कहते हैं‒
नवधा  भगति  कहउँ  तोहि  पाहीं ।
सावधान  सुनु   धरु   मन   माहीं ॥
...............................
नव महुँ एकउ   जिन्ह   कें   होई ।
नारि पुरुष   सचराचर      कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार  भगति   दृढ़   तोरें ॥
                                                    (मानसअरण्य ३५ । ४,३६ । ३४)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे