(गत ब्लॉगसे आगेका)
हनुमान्जी और शबरी झूठ नहीं बोलते, चतुराई नहीं करते, प्रत्युत सहज-सरल भावसे कहते हैं, क्योंकि उनमें किंचिन्मात्र भी अभिमान नहीं है । भक्त अपनेमें कोई विशेषता न देखकर केवल भगवान्की कृपा ही मानता है । जब अपनी कोई चीज है ही नहीं तो फिर अभिमान किस बातका ? जब अपनेमें गुण दीखता है और उस गुणको हम अपना मानते हैं, तब अभिमान पैदा होता है । भक्तको अपनेमें कोई गुण दीखता ही नहीं और वह किसी गुणको अपना मानता ही नहीं, अत: उसमें अभिमान पैदा होनेकी गुंजाइश ही नहीं । उसका उपाय और उपेय, साधन और साध्य‒दोनों भगवान् ही होते हैं । वह साधन भी भगवान्की कृपासे मानता है और साध्यकी प्राप्ति भी भगवान्की कृपासे मानता है ।
भगवान्की कृपा सबपर बराबर है‒‘सब पर मोहि बराबरि दाया’ (मानस, उत्तर॰ ८७ । ४) । जैसे, धूप सबपर समानरूपसे पड़ती है, पर आतशी शीशेमें वह केन्द्रित होकर अग्नि प्रकट कर देती है । अग्नि पैदा करना सूर्यका काम है और उसकी किरणोंको पकड़कर एकाग्र करना आतशी शीशेका काम है । ऐसे ही कृपा करना भगवान्का काम है और उनकी कृपाको स्वीकार करना भक्तका काम है । भगवान्की कृपामें कोई पक्षपात नहीं है । अपनेमें अभिमान न होनेसे भगवान्की कृपाका प्रवाह सीधे आता है । परन्तु अपनेमें कुछ विशेषता दीखती है कि मैं इतना जानता हूँ, मैं इतना समझदार हूँ, मेरेमें इतनी योग्यता है तो अभिमानके कारण उस कृपाके आनेमें बाधा लग जाती है । अपनेमें थोड़ा भी गुण, विशेषता, पुरुषार्थ, योग्यता दीखती है तो भक्ति प्राप्त नहीं होती । अपना अभिमान भक्तिमें बाधक है । इसलिये कोई अच्छा काम हो जाय तो भक्त उसको अपना न मानकर भगवान्का ही किया हुआ मानता है उसकी स्वतःस्वाभाविक भगवान्की तरफ ही दृष्टि जाती है ।
आछी करै सो रामजी, कै सद्गुरु कै सन्त ।
भूँडी बणै सो आपणी, ऐसी उर धारन्त ॥
ऐसी उर धारन्त, तभी कछु बिगड़ै नाहीं ।
उस सेवक की लाज, प्रतिज्ञा राखे सांई ॥
संतदास मैं क्या कहूँ, कह गये सन्त अनन्त ।
आछी करै सो रामजी, कै सद्गुरु कै सन्त ॥
कोई भी अच्छा काम बनता है तो वह भगवान्से,सद्गुरुसे अथवा सन्तोंसे बनता है । महर्षि वाल्मीकिजी भगवान्से कहते हैं‒
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा ।
जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ॥
(मानस, अयोध्या॰ १३१ । २)
भक्त गुणोंको तो भगवान्का मानता है और दोषोंको अपना मानता है । कारण कि गुण भगवान्के तथा स्वतःसिद्ध हैं और अवगुण व्यक्तिगत तथा अपने अभिमानसे उत्पन्न होनेवाले हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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