।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
भगवान्‌ और उनकी भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
हनुमान्‌जी और शबरी झूठ नहीं बोलतेचतुराई नहीं करतेप्रत्युत सहज-सरल भावसे कहते हैंक्योंकि उनमें किंचिन्मात्र भी अभिमान नहीं है । भक्त अपनेमें कोई विशेषता न देखकर केवल भगवान्‌की कृपा ही मानता है । जब अपनी कोई चीज है ही नहीं तो फिर अभिमान किस बातका जब अपनेमें गुण दीखता है और उस गुणको हम अपना मानते हैंतब अभिमान पैदा होता है । भक्तको अपनेमें कोई गुण दीखता ही नहीं और वह किसी गुणको अपना मानता ही नहींअत: उसमें अभिमान पैदा होनेकी गुंजाइश ही नहीं । उसका उपाय और उपेयसाधन और साध्य‒दोनों भगवान् ही होते हैं । वह साधन भी भगवान्‌की कृपासे मानता है और साध्यकी प्राप्ति भी भगवान्‌की कृपासे मानता है ।

भगवान्‌की कृपा सबपर बराबर है‒‘सब पर मोहि बराबरि दाया’ (मानसउत्तर ८७ । ४) । जैसेधूप सबपर समानरूपसे पड़ती हैपर आतशी शीशेमें वह केन्द्रित होकर अग्नि प्रकट कर देती है । अग्नि पैदा करना सूर्यका काम है और उसकी किरणोंको पकड़कर एकाग्र करना आतशी शीशेका काम है । ऐसे ही कृपा करना भगवान्‌का काम है और उनकी कृपाको स्वीकार करना भक्तका काम है । भगवान्‌की कृपामें कोई पक्षपात नहीं है । अपनेमें अभिमान न होनेसे भगवान्‌की कृपाका प्रवाह सीधे आता है । परन्तु अपनेमें कुछ विशेषता दीखती है कि मैं इतना जानता हूँमैं इतना समझदार हूँमेरेमें इतनी योग्यता है तो अभिमानके कारण उस कृपाके आनेमें बाधा लग जाती है । अपनेमें थोड़ा भी गुणविशेषतापुरुषार्थयोग्यता दीखती है तो भक्ति प्राप्त नहीं होती । अपना अभिमान भक्तिमें बाधक है । इसलिये कोई अच्छा काम हो जाय तो भक्त उसको अपना न मानकर भगवान्‌का ही किया हुआ मानता है उसकी स्वतःस्वाभाविक भगवान्‌की तरफ ही दृष्टि जाती है ।
आछी करै सो रामजी  कै सद्गुरु कै सन्त ।
भूँडी बणै सो आपणी    ऐसी उर धारन्त ॥
ऐसी उर धारन्त   तभी कछु बिगड़ै नाहीं ।
उस सेवक की लाज    प्रतिज्ञा राखे सांई ॥
संतदास मैं क्या कहूँकह गये सन्त अनन्त ।
आछी करै सो रामजी  कै सद्गुरु कै सन्त ॥

कोई भी अच्छा काम बनता है तो वह भगवान्‌से,सद्‌गुरुसे अथवा सन्तोंसे बनता है । महर्षि वाल्मीकिजी भगवान्‌से कहते हैं‒
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा ।
जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ॥
                                                         (मानसअयोध्या १३१ । २)

भक्त गुणोंको तो भगवान्‌का मानता है और दोषोंको अपना मानता है । कारण कि गुण भगवान्‌के तथा स्वतःसिद्ध हैं और अवगुण व्यक्तिगत तथा अपने अभिमानसे उत्पन्न होनेवाले हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे