(गत ब्लॉगसे आगेका)
इसलिये उसको ऐसा दीखता है कि जो अच्छा होता है, वह भगवान्की कृपासे होता है और जो बुरा होता है, वह मेरी भूलसे होता है । वास्तवमें बात भी यही सच्ची है । भक्त कोई चालाकी नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, प्रत्युत उसको ऐसा ही दीखता है कि मैं तो जैसा हूँ, वैसा ही हूँ ! यह तो ठाकुरजीकी कृपासे ऐसा काम बन गया, जिसको लोग मेरा मानकर मेरी बड़ाई कर रहे हैं । जब हनुमान्जी लंकासे लौटकर भगवान् रामके पास आये, तब भगवान्ने उनसे कहा‒
सुनु कपि तोहि समान उपकारी ।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
(मानस, सुन्दर॰ ३२ । ३)
यह सुनकर हनुमान्जी ‘त्राहि ! त्राहि !!’ कहते हुए भगवान्के चरणोंमें गिर गये‒
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥
(मानस, सुन्दर॰ ३२)
हनुमान्जीपर ऐसी कौन-सी आफत आ रही थी,जिससे बचनेके लिये उन्होंने ‘त्राहि ! त्राहि !!’ (बचाओ ! बचाओ !!) कहा ? वह आफत थी‒ अभिमान । भगवान्के द्वारा अपनी बड़ाई सुनकर कहीं अभिमान न आ जाय,इसलिये वे त्राहि-त्राहि पुकारने लगे और बोले कि सब कुछ आपके प्रतापसे ही हुआ है, मेरे बलसे नहीं‒
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥
(मानस, सुन्दर॰ ३३ । ५)
जहाँ अपना अभिमान नहीं होता, वहाँ साधकको कोई बाधा नहीं लगती । बाधा वहीं लगती है, जहाँ अपनेमें कुछ योग्यता, बल, समझदारी, विद्या, वैराग्य, त्याग, जप आदिका अभिमान होता है । भक्त अपनेमें कोई योग्यता नहीं देखता, प्रत्युत अपनेको सर्वथा अयोग्य समझता है । इसलिये उसमें भगवान्की योग्यता काम करती है । एक भगवान्के शरण हो जाय तो सब काम भगवान् करते हैं‒‘लाद दे, लदवा दे, लदवानेवाला साथ दे’, ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता १ । २२) । यह अनन्यभक्ति है । भगवान्की एक बान (स्वभाव,आदत या प्रकृति) है कि उनको वही भक्त प्यारा लगता है,जिसका दूसरा कोई सहारा नहीं है‒
एक बानि करुनानिधान की ।
सो प्रिय जाके गति न आन की ॥
(मानस, अरण्य॰ १० । ४)
इसलिये‒
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास ।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास ॥
(दोहावली २७७)
‒इस प्रकार अनन्यभावसे केवल भगवान्के आश्रित रहे और भजन करे । भजनका भी अभिमान नहीं होना चाहिये कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ आदि ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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