(गत ब्लॉगसे आगेका)
अगर सुखराशि नहीं हो तो नींद क्यों चाहते हो ? विश्राम क्यों चाहते हो ? काम-धंधा करो आठों पहर ! नींदमें शरीरको विश्राम मिलता है, मन-बुद्धि-इन्द्रियोंको विश्राम मिलता है । संसारको भूल जानेसे आनन्द मिलता है । अगर संसारका त्याग कर दो तो बड़ा भारी आनन्द मिलेगा और स्वरूपमें स्थिति हो जायगी । स्वरूपमें आपकी स्थिति स्वत:-स्वाभाविक है और स्वरूपमें महान् आनन्द है ।
आप अविनाशी, चेतन, अमल और सहजसुखराशि हैं । यदि आप अविनाशी न होते तो आपको बाल्यावस्था,युवावस्था और वृद्धावस्थाका ज्ञान नहीं होता; जाग्रत्, स्वप्न,सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि-अवस्थाका ज्ञान नहीं होता ।आप स्वयं नित्य-निरन्तर रहते हो और ये अवस्थाएँ निरन्तर नहीं रहतीं । ये आपके साथी नहीं हैं और आप इनके साथी नहीं हो । इनके साथ रहना अज्ञान है और इनके साथ न रहनेका, इनके संगके अभावका अनुभव करना ज्ञान है, बोध है, जीवन्मुक्ति है । प्रत्यक्ष बात है, सबका अनुभव है । अब केवल इस ज्ञानको महत्व देना है ।
आपने रुपयोंको महत्त्व दे रखा है, भोगोंको महत्त्व दे रखा है, शरीरको महत्त्व दे रखा है, कुटुम्बको महत्त्व दे रखा है, जमीन-मकानको महत्त्व दे रखा है । इस तरह नाशवान्को जो महत्त्व दे रखा है, यही अनर्थका मूल है । जिनका कुछ भी महत्त्व नहीं है, जो क्षणभंगुर हैं, एक क्षण भी स्थिर नहीं रहते, उनको तो आपने महत्त्व दे दिया, और आप निरन्तर रहते हो, उसको आप महत्त्व देते ही नहीं ! महत्त्वकी चीज तो यह है । केवल इस विवेकको महत्त्व देना है, इतनी ही बात है ! यह सब बदलता है, पर आप नहीं बदलते । आप वही रहते हो । सबका अभाव होनेपर आप सुखका अनुभव करते हो । नींदमें आप संसारको भूल जाते हो तो उसमें आपको ताजगी मिलती है, सुख मिलता है । ऐसे ही आप जाग्रत्-अवस्थामें अपने-आपमें स्थित हो जाओ । मैं समाधिकी बात,अन्तःकरणकी एकाग्रताकी बात नहीं कहता हूँ । अपने-आपमें आपकी स्थिति स्वत: है । जाग्रत्में, स्वप्नमें, सुषुप्तिमें,मूर्च्छामें, समाधिमें, किस अवस्थामें आपकी स्थिति नहीं है ?आपकी स्थिति स्वतः है, इसको आप पहचानो । आने-जानेवालोके साथ नहीं मिलना है‒इसका नाम है ज्ञान । इनके साथ मिल जाना है‒इसका नाम है अज्ञान । इतनी ही तो बात है ! अनेक ग्रन्थोंको पढ़नेसे बोध नहीं होगा और इस बातको आप मानो तो बोध हो जायगा ! वास्तवमें यह व्यक्तिगत बात नहीं है, सबकी बात है । सबके अनुभवकी बात है ।
श्रोता‒बात स्पष्ट समझमें आती है पर व्यवहारकालमें इतना घुल-मिल जाते हैं कि यह विवेक लुप्त-सा हो जाता है !
स्वामीजी‒व्यवहारमें जागृति नहीं रहती, इसका कारण क्या है ? कि व्यवहारमें आनेवाली नाशवान् वस्तुओंको आपने महत्त्व दे दिया ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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