(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒संसारका ‘है’-पना अन्दर बैठा हुआ है, वह निकल नहीं रहा है । बात तो यहाँ अटक रही है !
स्वामीजी‒अच्छी बात है, अब ध्यान देकर सुनना आपलोग । ‘है’-पना अर्थात् सत्ता दो तरहकी होती है । एक सत्ता हरदम रहती है और एक सत्ता उत्पन्न होनेके बाद होती है ।* आपकी सत्ता निरन्तर रहनेवाली है और शरीर- संसारकी सत्ता पैदा होकर होनेवाली है, निरन्तर रहनेवाली नहीं है । आप कहते हो कि सत्ता मिटती नहीं है, मैं कहता हूँ कि सत्ता टिकती नहीं है !
नदीके किनारे एक सन्त खड़े थे । लोग बोले कि देखो महाराज, नदी बह रही है और वहाँ पुलपर आदमी बह रहे हैं । सन्त बोले कि पुल भी बह रहा है ! जैसे नदी बह रही है,आदमी बह रहे हैं, ऐसे पुल भी बह रहा है‒यह कैसे मान लें? सन्तने पूछा कि जिस दिन पुल बना था, उतना नया है आज ? तो इतना बह गया कि नहीं ? पूरा बहनेपर बिखर जायगा । ऐसे ही संसार भी बह रहा है । संसारकी सत्ता उत्पन्न और नष्ट होनेवाली है । इस सत्ताको तो आपने महत्व दे दिया, पर नित्य रहनेवाली सत्ताको आपने महत्त्व नहीं दिया । शरीर, संसारकी सत्ता तो अपने सामने पैदा होती और नष्ट होती है । अत: नित्य रहनेवाली सत्ताको महत्त्व दो ।
श्रोता‒रागके रहते हुए ‘संसार नहीं है’‒यह निश्चय हो जायगा क्या ?
स्वामीजी‒मैं कहता हूँ कि अभी मेरे कहनेसे आपको अभावका कुछ ज्ञान हुआ कि नहीं ?
श्रोता‒हाँ जी !
स्वामीजी‒तो इस समयमें क्या राग मिट गया ?
श्रोता‒नहीं मिटा ।
स्वामीजी‒तो रागके रहते हुए अभावका ज्ञान होता है न ? आप राग-द्वेषपर विचार मत करो, भाव-अभावपर विचार करो । सुगम बात बताता हूँ कि राग-द्वेष दूर नहीं हुए तो कोई परवाह नहीं; परन्तु इनकी सत्ता नहीं है‒यह बात तो मानो आप । संसारकी सत्ता नहीं तो राग-द्वेष कहाँ टिकेंगे ?मिट जायँगे । आप राग-द्वेषकी चिन्ता मत करो, इनकी बेपरवाह करो । राग हो गया तो हो गया, कोई परवाह नहीं । द्वेष हो गया तो हो गया, कोई परवाह नहीं । न रागको पकड़ो, न द्वेषको पकड़ो । जो पैदा होता है वह नष्ट होता है ।रागकी भी पैदा होनेवाली सत्ता है, द्वेषकी भी पैदा होनेवाली सत्ता है, पदार्थोंकी भी पैदा होनेवाली सत्ता है । यह सत्ता वास्तवमें सत्ता नहीं है । इसमें क्या बाधा लगती है ?
श्रोता‒संसारको कैसे भूला जाय ?
स्वामीजी‒जैसे नींद आनेपर संसारको भूल जाते हो । अभी मेरी बात सुनते हो तो अभी अपना घर याद है क्या ?अब याद दिलानेसे याद आ गया, नहीं तो भूले हुए थे । ऐसे ही संसारको भूल जाओ । जो नाशवान् है उसके भूलनेका,उसके अभावका तो अनुभव होता है पर आप उसको महत्त्व नहीं देते । आप संसारके अभावको और परमात्माके भावको महत्त्व नहीं देते । संसारके अभाव और परमात्माके भावका ज्ञान तो आपको है, अब कृपानाथ ! इतनी कृपा करो कि इस ज्ञानको महत्त्व दो । बालूकी भीत (दीवार) हो और नदीके ऊपर बनाना चाहें तो क्या ठहर जायगी ? ये राग-द्वेष तो बालूकी भीत हैं और संसार नदीकी तरह बह रहा है । बहते हुए संसारमें ये राग-द्वेष कैसे टिकेंगे ? इतनी बात याद रखो कि यह बहनेवाला है, रहनेवाला नहीं है । सुखदायी अथवा दुःखदायी कोई परिस्थिति आये, वह रहनेवाली नहीं है । इतनी बात याद रखो तो सुगमतासे महान् अनुभव हो जाय,बोध हो जाय !
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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* इस विषयको विस्तारसे समझनेके लिये ‘गीता-दर्पण’ में आया‘गीतामें द्विविध सत्ताका वर्णन’ शीर्षक लेख पढ़ना चाहिये !
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