जो बात वास्तवमें है, उसको माननेमें क्या जोर आता है ? जैसे, यह गीताभवन है‒ऐसा माननेमें कोई परिश्रम पड़ता है ? ये गंगाजी बह रही हैं‒ऐसा माननेमें कोई जोर आता है ? सच्ची बातको ज्यों-का-त्यों माननेमें क्या जोर आता है ? ऐसी एक बात आपको बतायी जाती है । भगवान् कहते हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) ‘यह जीव मेरा अंश है’ और गोस्वामीजी महाराज लिखते हैं‒‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस ७ । ११७ । १) । अत: आप अपनेको ईश्वरका अंश, बेटा-बेटी मान लो तो क्या जोर आता है ? शास्त्रोंमें अगर आदर है तो भगवान्का है और उससे भी ज्यादा सन्त-महात्माओंका है । भगवान् और सन्त-महात्मा‒दोनों ही कहते हैं कि जीव परमात्माका अंश है । आप किसी भी कुलमें जन्में हों, किसी भी सम्प्रदायमें हों, आपमें कैसी ही योग्यता हो, आप पढ़े-लिखे हों या नहीं हों; परन्तु अंश तो परमात्माके ही हो । पूत तो पूत ही होता है । वह भले ही सपूत अथवा कपूत हो जाय, पर पूत होनेमें फर्क पड़ता है क्या ? कपूत क्या पूत नहीं होता ? इसी तरह हम कैसे ही हैं,पर भगवान्के हैं । बहनें हृदयसे मान लें कि मैं तो भगवान्की प्यारी पुत्री हूँ । ऐसा माननेमें क्या जोर आता है ? मूलमें,ठेठसे सच्ची बात है यह । भगवान्के अंश कह दो या बेटा-बेटी कह दो, एक ही बात है । संसारके माँ-बाप तो हर जन्ममें बदलते हैं, पर भगवान् कभी बदलते हैं क्या ? उस भगवान्के ही हम सब हैं । अच्छे हैं, बुरे हैं, भले हैं, मन्दे हैं, पढ़े-लिखे हैं,अपढ़ हैं, पुण्यात्मा हैं, पापी हैं, कैसे ही हैं, पर हैं तो भगवान्के ही ! अब इस बातको माननेमें क्या बाधा लगती है ? कौन-सी फजीती होती है ? क्या बेइज्जती होती है आपकी ?
कोई रेलवेमें काम करता है तो वह कहता है कि हम रेल-कर्मचारी हैं, बैंकमें काम करता है तो कहता है कि हम बैंकके कर्मचारी हैं, किसी दूकानमें काम करता है तो कहता है कि हम अमुक सेठके, अमुक दुकानदारके आदमी हैं, किसी मिलमें काम करता है तो कहता है कि हम अमुक मिलके आदमी हैं । क्या वह माँ-बापका न होकर रेलवेका है । क्या माँ-बापका न होकर बैंकका है ? कोई कह सकता है कि मैं माँ-बापका तो नहीं हूँ, पर रेलवेका हूँ ! माँ-बापका नहीं हूँ,बैंकका हूँ ! माँ-बापका तो वह रहता ही है । ऐसे ही आप मनुष्यशरीरमें आये हो तो भगवान्के होकर मनुष्य हो । गीतामें लिखा है‒
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्
यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
(२ । २२)
‘मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है’ ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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