श्रोता‒करणनिरपेक्ष साधनकी दृष्टिसे जो कर्तव्य आप सिखाते हैं, उसका स्वरूप क्या है ?
स्वामीजी‒आप करण-निरपेक्ष साधनपर जोर मत लगाओ, प्रत्युत इस बातपर जोर लगाओ कि भगवान्की प्राप्तिके लिये जड़ चीज (करण आदि) की सहायताकी आवश्यकता नहीं है । जैसे आपने सुना है कि करण एक है,ऐसे आप जानते हैं कि कारक कितने होते हैं ? कारक छ: होते हैं‒कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । कारक शब्दका अर्थ क्या है ? जिससे क्रियाकी सिद्धि होती है, उसको कारक कहते हैं । कोई भी क्रिया कारकके बिना नहीं होती । अत: व्याकरणमें जहाँ इसका विवेचन हुआ है, वहाँ पहले ऐसा अर्थ किया है कि जो क्रियाका सम्बन्धी हो, उसको कारक कहते हैं । उसपर विचार करते-करते कहा कि यही कारक नहीं है; क्योंकि उसका क्रियाके साथ सीधा सम्बन्ध नहीं है । परन्तु ‘राज्ञः पुरुष: गच्छति’ ‘राजाका पुरुष जाता है’‒इसमें राजाका सम्बन्ध पुरुषके साथ और पुरुषका सम्बन्ध गमनरूपी क्रियाके साथ होनेसे राजाका सम्बन्ध परम्परासे क्रियाके साथ हो गया;अत: राजा कारक होना चाहिये ? ऐसी शंका होनेपर यह निर्णय किया गया कि जो क्रियाको पैदा करनेवाला हो,उसका नाम कारक है‒‘क्रियाजनकत्वं कारकत्वम्’।
प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है‒यह सबका अनुभव है । जैसे मैंने व्याख्यान आरम्भ किया तो उसकी समाप्ति भी होगी । आप कोई भी काम करो, उसका आरम्भ और अन्त जरूर होता है । जिसका आरम्भ और अन्त होता है, वह अनन्तका प्रापक नहीं होता । जो खुद ही उत्पन्न और नष्ट होता है, वह अनन्तकी प्राप्ति करानेवाला कैसे होगा ? वस्तुमात्र, व्यक्तिमात्र, परिस्थितिमात्र, क्रियामात्र उत्पन्न और नष्ट होनेवाली है । उत्पन्न और नष्ट होनेवाली ही क्रिया होती है तथा उत्पन्न और नष्ट होनेवाले ही पदार्थ होते हैं । ऐसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाले जड़के द्वारा अनुत्पन्न चिन्मय तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत जड़के त्यागसे चिन्मय तत्त्वकी प्राप्ति होती है । अत: करण-निरपेक्षका अर्थ केवल करणसे रहित ही नहीं है, प्रत्युत कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान,अपादान और अधिकरण‒छहों कारकोंसे रहित है । कारकमात्र क्रियाजनक होते हैं और क्रिया उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाली होती है । उत्पन्न और नष्ट होनेवाली क्रियासे अनुत्पन्न तत्त्वकी प्राप्ति कैसे होगी ? अत: परमात्मतत्व कर्ता-निरपेक्ष है, कर्म-निरपेक्ष है, करण-निरपेक्ष है, सम्प्रदान-निरपेक्ष है, अपादान-निरपेक्ष है और अधिकरण-निरपेक्ष है । तात्पर्य है कि कोई भी कारक परमात्माको पकड़ नहीं सकता; क्योंकि सभी कारक उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं । उत्पन्न और नष्ट होनेवालेके त्यागसे अनुत्पन्न तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी तो किसकी प्राप्ति होगी ? जहाँ उत्पन्न और नष्ट होनेवालेसे उपराम हुए, अनुत्पन्न तत्त्व प्राप्त हो जायगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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