(गत ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें अनुत्पन्न तत्त्व अप्राप्त नहीं है । उत्पन्न होनेवाले पदार्थोंका, वस्तुओंका सहारा ही उसमें बाधक है । उत्पन्न और नष्ट होनेवाली क्रिया, वस्तु, परिस्थिति, अवस्था,घटना आदिका जो महत्त्व अन्तःकरणमें पड़ा हुआ है, यही उस तत्त्वकी प्राप्तिमें बाधक है । अत: करण-निरपेक्ष कहनेका तात्पर्य करणके साथ विरोध नहीं है, प्रत्युत उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुके द्वारा अनुत्पन्न तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती‒इसमें तात्पर्य है ।
श्रोता‒नाशवान्का महत्त्व कैसे छूटे ?
स्वामीजी‒दूसरोका हित करनेसे । अपनी शक्तिके अनुसार दूसरोंका हित करो । अन्नक्षेत्र खोलो, प्याऊ लगाओ,औषधालय खोलो । इस तरहसे लोगोंके हितकी भावना होनेसे महत्त्व छूटेगा । वस्तु हमारेको मिल जाय‒यह जड़को खींचनेका उपाय है, और जबतक जड़को खींचते रहोगे, तबतक चिन्मय तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी । इन वस्तुओंके द्वारा दूसरोंका हित हो‒यह जब होगा, तब मात्र क्रिया और पदार्थका प्रवाह लोगोंके हितकी तरफ हो जायगा और चिन्मय तत्त्व शेष रह जायगा, उसकी प्राप्ति हो जायगी । जड़ तो स्वत: नष्ट होता है । जड़का खिंचाव तो रह जाता है, पर जड़ नहीं रहता । बाल्यावस्था रह गयी क्या ? नहीं रही तो युवावस्था रहेगी क्या ? धनवत्ता रहेगी क्या ? यह बनी रहे और मेरी तरफ आ जाय‒ऐसी मान्यता ही बाधा है । अब इसकी जगह यह भाव हो जाय कि दूसरोंका हित हो, दूसरोंका भला हो तो जड़ताका त्याग हो जायगा और त्याग होते ही तत्काल परमशान्तिकी प्राप्ति हो जायगी‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२ । १२) । अत: करण-निरपेक्षका तात्पर्य त्यागमें है । जड़की सहायता जड़की प्राप्तिमें तो उपयोगी हो सकती है, पर चिन्मय तत्त्वकी प्राप्तिमें जड़की सहायता काम नहीं करती ।
एक बात और बतायें । कोई आदमी सदावर्त खोलता है तो क्या उसका लक्ष्य यह होता है कि मैं दुनियामात्रकी भूख मिटा दूँगा ? क्या ‘सर्वभूतहिते रता:’ का अर्थ यह होता है कि मैं सबका हित कर ही दूँगा ? यह नहीं है । अपनी शक्ति दूसरोंकी सेवामें लगानेमें ही तात्पर्य है । सबकी भूख दूर करनेका, सबका दुःख दूर करनेका उसका ठेका नहीं है । जितना अन्न मैं खाता हूँ, उसके सिवाय अपने पास जो अन्न है, वह दूसरोंके काम आ जाय । ‘सर्वभूतहिते रता:’ का तात्पर्य है‒अपने स्वार्थका त्याग करना । कारण कि स्वार्थका जो लोभ है, यही तो बाधक है । ऐसे ही वस्तुओंका, पदार्थोंका,व्यक्तियोंका, अवस्थाओंका मनमें जो महत्त्व अंकित है, यही परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें बाधक है । जब दुनियामात्र मिलकर एक आदमीकी भी पूर्ति नहीं कर सकती, उसको सुखी नहीं कर सकती तो फिर एक आदमी सम्पूर्ण दुनियाकी पूर्ति कैसे कर देगा ? अपनी पूरी शक्ति लगा देनेकी ही जिम्मेवारी है,दूसरोंका दुःख दूर कर देनेकी जिम्मेवारी नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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