(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒हमारा तो सारा समय जड़ताकी प्राप्तिमें ही लग रहा है !
स्वामीजी‒तो फिर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी अन्नदाता ! और चाहे सो हो जाय ! गीताने साफ कहा है कि जड़ चीजोंसे सुख भोगना और उनका संग्रह करना‒इन दोमें जिसकी आसक्ति होती है, उसमें परमात्माको प्राप्त करनेका निश्चय भी नहीं हो सकता, प्राप्त करना तो दूर रहा (गीता २ । ४४) ! संसारमें मेरा नाम हो जाय, मेरेको आराम मिले, मैं धनी बन जाऊँ‒इस तरह जड़ चीजोंकी जबतक मनमें लालसा है, तबतक चिन्मय तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी । यह तात्पर्य है करण-निरपेक्षका ! आप ध्यान दें । करण-निरपेक्षका अर्थ है कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति जड़की अपेक्षा नहीं रखती, प्रत्युत जड़के त्यागकी अपेक्षा रखती है । क्रिया और पदार्थ, व्यक्ति और वस्तु, अवस्था और परिस्थिति‒इनके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । इनकी उपेक्षा हो जाय, त्याग हो जाय, भीतरसे इनका महत्व हट जाय तो तत्काल प्राप्ति हो जायगी; क्योंकि परमात्मा अप्राप्त नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । संसार अप्राप्त है, पर उसको प्राप्त मानते हैं, प्राप्त करना चाहते हैं, यही बाधा है । यह बाधा सुगमतासे दूर होती है‒‘सर्वभूतहिते रता:’ होनेसे । प्राणिमात्रके हितमें हमारी प्रीति हो जाय । प्रीति होनेसे क्या होगा ? स्वार्थकी जो भावना है, व्यक्तिगत सुखभोगकी जो इच्छा है, वह हटेगी, और वह जितनी हटेगी, उतने ही आप चिन्मय तत्त्वके नजदीक पहुँच जाओगे । उस तत्त्वसे विमुखता हुई है, अलगाव नहीं हुआ है ।
दूसरोंको सुख पहुँचानेसे अपने सुखभोगकी इच्छा मिटती है । माता बालकका पालन करती है तो वह बालकको भूखा नहीं रहने देती, खुद भूखी रह जाती है । ऐसे ही केवल दुनियामात्रका हित करनेकी जोरदार इच्छा होगी तो अपनी स्वार्थबुद्धिका त्याग सुगमतासे हो जायगा ।
श्रोता‒दो बात मालूम पड़ती है कि जड़ताका त्याग करना और अन्तःकरणको साधनरूपमें प्रयुक्त नहीं करना ।
स्वामीजी‒साधनमें प्रयुक्त न करनेका तात्पर्य है कि यह हमारा नहीं है और हमारे लिये नहीं है, औरोंका है और औरोंके लिये है । न अन्तःकरण हमारे लिये है, न बहिःकरण हमारे लिये है । न इन्द्रियाँ हमारे लिये हैं, न शरीर हमारे लिये है, न सम्पत्ति हमारे लिये है । हमारी कहलानेवाली जितनी चीजें हैं, वे हमारी नहीं हैं और हमारे लिये भी नहीं हैं‒ये दो बातें दृढ़ करनी हैं । स्वार्थबुद्धि, संग्रहबुद्धि, सुखबुद्धि, भोगबुद्धि नहीं होनी चाहिये, फिर सब ठीक हो जायगा यही करण-निरपेक्षका तात्पर्य है ।
करण किसका नाम है ? जिस साधनके अनन्तर तत्काल क्रियाकी सिद्धि हो जाय, उसका नाम करण है । जैसे, ‘रामेण बाणेन हतो वाली’ ‘रामके बाणसे बालि मरा’ तो बालिके मरनेमें बाण हेतु हुआ; अत: बाण करण हुआ । यद्यपि बाणके चलनेमें धनुष, डोरी, हाथ आदि सब हेतु हैं, तथापि बालि बाणसे मरा है धनुष, डोरी आदिसे नहीं । अत: जिससे बालि मर गया, उस बाणको करण कहेंगे । करणसे क्रियाकी सिद्धि होती है, उससे परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो जायगी ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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