(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒महाराजजी ! क्रियाकी सिद्धिमें तो कर्ता भी रहता है ?
स्वामीजी‒हाँ कर्ता भी रहता है, कर्म भी रहता है,करण भी रहता है, सम्प्रदान भी रहता है, अपादान भी रहता है और अधिकरण भी रहता है ।
श्रोता‒फिर यह केवल करण-निरपेक्ष कैसे हुआ ?
स्वामीजी‒करण-निरपेक्ष इसलिये कहा है कि क्रियाकी सिद्धि करणके व्यापारके बाद ही होती है । करणका लक्षण बताया है‒‘साधकतमं करणम्’ (पाणि॰ अ॰ १ । ४ । ४२) । साधक नहीं, साधकतर नहीं, साधकतम बताया है । क्रियाकी सिद्धिमें जो अत्यन्त उपकारक होता है, उसका नाम ‘करण’ होता है । अत: अत्यन्त उपकारक जो कारक है, वह करण भी जिसकी प्राप्तिमें हेतु नहीं है, फिर दूसरे कारक हेतु कैसे हो जायँगे ? यह तात्पर्य है करणनिरपेक्ष कहनेका !
श्रोता‒इसे यदि कारक-निरपेक्ष कहें तो क्या हर्ज है ?
स्वामीजी‒बिलकुल कारक-निरपेक्ष कह सकते हैं । परन्तु क्रियाकी निष्पत्ति करणके बाद होती है‒‘क्रियाया निष्पत्तिर्यद्व्यापारादनन्तरं करणत्वं भवेत् तेन’ । क्रियाके होनेमें सब कारक कारण हैं‒‘क्रियाजनकत्वं कारकत्वम्’, पर करणके व्यापारमें क्रियाकी सिद्धि हो ही जाती है । अत: करण-निरपेक्ष कहनेसे कारक-निरपेक्ष हो गया ।
श्रोता‒इसका मतलब यह हुआ कि करणके द्वारा हम जो क्रिया करें, वह ‘सर्वभूतहिते रता:’ होनी चाहिये ?
स्वामीजी‒ध्यान दें, परमात्मा क्रियारूप नहीं हैं । अत: परमात्माकी प्राप्तिमें प्राणिमात्रका हित कारण नहीं है,प्रत्युत प्राणिमात्रके हितका भाव कारण है । अत: अपना भाव, उद्देश्य, लक्ष्य बदल दिया जाय तो सब ठीक हो जायगा । जैसा भाव, उद्देश्य, लक्ष्य होगा, उसके अनुसार ही व्यवहार होगा । अत: लक्ष्य केवल दूसरोंके हितका हो, अपने स्वार्थ और सुखका न हो ।
श्रोता‒रामने बालिको मारनेका पहले निश्चय किया,फिर बाण काममें लिया । यदि बाण काममें नहीं लेते तो केवल निश्चयसे बालि मर जाता क्या ?
स्वामीजी‒क्रियाकी सिद्धिमें ही करणकी अपेक्षा है । परमात्मा क्रियाका विषय है ही नहीं । करण विशेष होनेसे क्रिया विशेष होगी, कर्ता कैसे विशेष हो जायगा ? कलम अच्छी होनेसे लिखना अच्छा होगा, लेखक कैसे अच्छा हो जायगा ? कल्याण करणका करना है कि कर्ताका करना है ? मुक्ति करणकी होगी कि कर्ताकी होगी ? करणके द्वारा कर्ताकी मुक्ति कैसे हो जायगी ? करणके द्वारा तो क्रिया होगी । क्रियाकी सिद्धिमें करण प्रधान है । अत: करण-निरपेक्ष कहनेसे स्वत: ही कारक-निरपेक्ष हो गया । कारकसे क्रियाकी सिद्धि हो जायगी, दुनियाका काम हो जायगा, पर परमात्मा कैसे प्राप्त होगा ?
श्रोता‒आप कहते हैं कि परमार्थका कार्य करना चाहिये, अन्नक्षेत्र खोलना चाहिये, प्याऊ लगानी चाहिये तो उनका फल भोगनेके लिये पुन: जन्म लेना पड़ेगा और इस तरह जन्म-मरणसे कभी छुटकारा नहीं होगा !
स्वामीजी‒पारमार्थिक कार्यसे कल्याण नहीं होता । कल्याण निष्कामभावसे होता है । बन्धन कामनासे ही होता है । कामना नहीं होगी तो कल्याण ही होगा, और क्या होगा ? जन्म-मरणका कारण तो कामना ही है । अत: कामनाका त्याग करना है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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