(गत ब्लॉगसे आगेका)
४. नित्यविरह और नित्यमिलन
मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं‒इस प्रकार भगवान्में आत्मीयताके समान दूसरा कोई साधन नहीं है,भजन नहीं है । आत्मीयतासे आनन्दघन भगवान्को भी आनन्द मिलता है । भगवान् अपने आत्मीय जनको अपना सर्वस्व प्रदान कर देते हैं । भगवान् उसको अपना अनन्तरस (प्रेम) प्रदान करते हैं । परन्तु जो पराधीनतासे, जन्म-मरणके बन्धनसे दुःखी होकर मुक्तिकी कामना करते हैं, उनको भगवान् मुक्ति प्रदान करते हैं, किन्तु स्वयं उससे छिपकर रहते हैं । जब मुक्त पुरुषको मुक्ति (अखण्डरस) में भी सन्तोष नहीं होता, तब उसमें अनन्तरसकी भूख जाग्रत् होती है । कारण कि मुक्त होनेपर नाशवान् रसकी कामना तो मिट जाती है, पर अनन्तरसकी भूख नहीं मिटती । इसलिये ब्रह्मसूत्रमें आया है‒
मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात् । (१ । ३ । २)
‘उस प्रेमस्वरूप भगवान्को मुक्त पुरुषोंके लिये भी प्राप्तव्य बताया गया है ।’ अत: भगवान्का एक नाम‘आत्मारामगणाकर्षी’ भी है ।
अनन्तरस-बोधमें नहीं है, प्रत्युत प्रेममें है । इस अनन्तरसकी भूख ही जीवकी वास्तविक तथा अन्तिम भूख है और प्रेमकी प्राप्ति ही जीवका वास्तविक तथा अन्तिम लाभ है । मुक्तिकी तो सीमा है*, पर इस प्रेमकी कोई सीमा नहीं है । इस प्रेमकी प्राप्तिके लिये भगवान् कैसे हैं‒यह जाननेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत भगवान् मेरे हैं‒यह माननेकी जरूरत है । भगवान् मेरे हैं‒यह आत्मीयता भक्त और भगवान्‒दोनोंको आनन्द प्रदान करती है अनन्तरस प्रदान करती है ।कारण कि किसी वस्तुका ज्ञान होनेसे केवल अज्ञान मिटता है मिलता कुछ नहीं । परन्तु ‘वस्तु मेरी है’‒इस तरह वस्तुमें ममता होनेसे एक रस मिलता है । तात्पर्य है कि वस्तुके आकर्षणमें जो रस है, वह रस वस्तुके ज्ञानमें नहीं है । सांसारिक वस्तुमें आकर्षण तो अपने सुखके लिये होता है पर भगवान्में आकर्षण उनको सुख देनेके लिये होता है‒‘तत्सुखे सुखित्वम् ।’ इसलिये सांसारिक आकर्षणका तो अन्त आ जाता है, पर भगवान्के आकर्षणका अन्त नहीं आता, वह अनन्त होता है । भोगेच्छाका अन्त होता है और मुमुक्षा अथवा जिज्ञासाकी पूर्ति होती है, पर प्रेम-पिपासाका न तो अन्त होता है और न पूर्ति हाती है, प्रत्युत वह प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है‒‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ (नारदभक्तिसूत्र ५४) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ (गीता ३ । १७)
‘जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।’
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