चिन्मय सत्ता तो वही (एक ही) है । अगर
हम उस सत्तामें ही रहें तो सत्ताके सिवाय ये अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि कुछ है ही नहीं
। जैसे, छोटा बालक माँकी गोदीमें ही रहता है, गोदीसे नीचे उतरते ही रोने लग जाता
है, ऐसे ही हम उस सत्तामें ही रहें, सत्तासे नीचे उतरें ही नहीं, कभी उतर जायँ तो व्याकुल हो जायँ ! चाहे अनुकूलता आ जाय, चाहे प्रतिकूलता आ जाय; चाहे जन्म हो जाय, चाहे मृत्यु हो जाय; चाहे नीरोगता आ जाय, चाहे बीमारी आ जाय; चाहे संयोग हो जाय, चाहे वियोग हो जाय; चाहे सम्पत्ति आ जाय, चाहे विपत्ति आ जाय; चाहे मुनाफा हो जाय, चाहे घाटा लग जाय; चाहे करोड़पति हो जाय, चाहे कँगला हो जाय; चिन्मय सत्तामें क्या फर्क पड़ता है ? सत्तामें कुछ होता है ही नहीं । उसमें न कुछ हुआ है, न कुछ हो रहा है, न कुछ होगा और न कुछ हो सकता ही है । कुछ भी होगा तो वह टिकेगा नहीं और सत्ता मिटेगी
नहीं । उस सत्तामें हमारी स्थिति स्वतः है ।
‘है’ में हमारी स्थिति स्वतः है और ‘नहीं’ में हमने स्थिति मानी है । मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ; मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ; मैं बलवान् हूँ, मैं निर्बल हूँ; मैं विद्वान् हूँ, मैं मूर्ख हूँ‒यह सब मानी हुई स्थिति
है । वास्तवमें हमारी स्थिति निरन्तर ‘है’ में है । उस ‘है’ के सिवाय किसीकी भी सत्ता नहीं है । उस ‘है’ के समान विद्यमान कोई हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । वह सदा ज्यों-का-त्यों
मौजूद है । वह सभीके प्रत्यक्ष है, किसीसे बिलकुल भी छिपा हुआ नहीं है । यही ब्रह्मज्ञान है, तत्त्वज्ञान है । जो ‘है’ (चिन्मय सत्ता) में स्थित है, वही तत्त्वज्ञानी है, जीवन्मुक्त है, महात्मा है । गीतामें आया है‒
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं
परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स
पश्यति ॥
(१३ । २७)
‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें
परमात्माको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है (नहीं’ को न देखकर केवल ‘है’ को देखता है), वही वास्तवमें सही देखता है ।’
समं पश्यन्हि सर्वत्र
समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां
गतिम् ॥
(१३ । २८)
‘क्योंकि सब जगह समरूपसे
स्थित ईश्वरको समरूपसे देखनेवाला मनुष्य अपने-आपसे अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता
है ।’
नारायण
! नारायण !! नारायण !!!
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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