(गत ब्लॉगसे आगेका)
‘अकथ
अनादि सुसामुझि साधी’‒भगवान् और
भगवान्के नामकी महिमा कोई कह नहीं सकता । ये दोनों अनिर्वचनीय हैं,
इस कारण कोई इनका कथन नहीं कर सकता । ‘रामु
न सकहिं नाम गुन गाई’‒रामजी खुद
भी अपने नामकी महिमा नहीं गा सकते, फिर दूसरा क्या कह सकता है ?
नामकी महिमा कबसे चली,
कबसे आरम्भ हुई ? तो कहते हैं भगवान्का नाम और नामकी महिमा सदासे है । जैसे भगवान्
अनादि हैं, ऐसे उनके नामकी महिमा भी अनादि है । श्रेष्ठ बुद्धिसे अच्छी
तरह समझकर उनकी सिद्धि की जाती है । भगवान्को और उनके नामकों गहरा उतरकर समझना चाहिये
। गहरा उतरना क्या है ? जैसे, भोजन कैसा है ? उसका भोजन करनेसे पता लगता है । ऐसे ही नाम-जपमें
गहरा उतरकर ठीक तरहसे लग जायँ, तब इसका पता लगता है कि इसमें कितना रस भरा हुआ है
! श्रेष्ठ बुद्धिके बिना इसमें प्रवेश सम्भव नहीं है ।
मलिन बुद्धिवालेका भगवान्में प्रेम नहीं होता ।
उसे भगवान्के नाममें रस नहीं आता । जब नाममें रुचि न हो, अच्छा
न लगे तो समझना चाहिये कि भीतरमें कोई गड़बड़ी है । जैसे, जिस व्यक्तिको पित्तका बुखार हो,
उसे मिश्री कड़वी लगती है तो क्या उपाय करें ?
उसको मिश्री-ही-मिश्री खिलाओ । खाते-खाते जब पित्त शान्त हो
जायगा फिर मिश्री मीठी लगने लग जायगी । ऐसे ही भगवान्का नाम मीठा न लगे तो भी लिये
जाओ । नामरूपी मिश्रीमें ऐसी शक्ति है कि मिठास पैदा हो जायेगा । जहाँ पित्त शान्त
हुआ कि मिठास आया । भगवान्का नाम किसी तरह लिये ही जाओ ।
फिर देखो, कितना विलक्षण आनन्द आता है ।
देखो भाई ! यह समय पूरा हो जायगा ऐसे ही । अगर भजन करना हो तो
जल्दी कर लो । उमरका समय पूरा होनेके बाद फिर कोई वश नहीं चलेगा । जबतक यह श्वासरूपी
धौंकनी चलती है, तभीतक ही भजन करके लाभ ले लो । ये श्वास पूरे हो जायेंगे फिर
हाथमें कुछ भी नहीं रहेगा ।
नाम और रूपकी तुलना
पिछली दो चौपाइयोंमें नाम और नामीकी महिमा बतायी गयी और दोनोंको
ही श्रेष्ठ, अकथनीय और अनादि बताया । दोनोंमें गहरे उतरनेसे ही पता लगता
है । अच्छी समझ होनेसे दोनोंमें हमारी प्रीति हो सकती है । अब आगे गोस्वामीजी महाराज
कह रहे हैं‒
को बड़ छोट कहत
अपराधू ।
सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू ॥
(मानस, बालकाण्ड,
दोहा २१ । ३)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे |