(गत ब्लॉगसे आगेका)
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्
जहाँ भगवान्की कथा सुननेका मन किया, नाम
जप करें, भजन करें, ऐसी
इच्छा हुई कि भगवान् उसके हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं । ‘राम’ नाम महाराजकी तरफका विचार हो गया तो उसके आभासमात्रसे पाप नष्ट
हो जाते हैं । पापोंमें ताकत नहीं है ठहरनेकी ।
पाप वास्तवमें क्या है ? शास्त्रनिषिद्ध
आचरण । जिनका शास्त्रोंने
निषेध किया कि ‘ऐसा मत करो’ उसका करना ही पाप है । पाप कोई बलवान् वस्तु नहीं है,
यह तो निकृष्ट है । जो निकृष्ट होता है,
वह बलवान् भी हो तो उसमें ताकत नहीं होती । जैसे,
बड़े-बड़े बलवान् चोर मकानपर चढ़ जाते हैं,
भीतर आना चाहते हैं,
पर घरमें उसी समय एक बालक रोने लगे,
तो वे भाग जाते हैं;
क्योंकि उनका हृदय कच्चा होता है । पापी-अन्यायी होनेसे उनमें ताकत नहीं होती । वे भाग जाते हैं बच्चेके
रोनेकी आवाजमात्रसे । बेचारे पापमें शक्ति नहीं है । मनुष्यने ही इसको आदर देकर पकड़
रखा है । पाप तो बेचारे भागते हैं । जहाँ सत्संग हो जाय, वहाँ
पाप कैसे टिक सकता है ! पर मनुष्य उसको पकड़-पकड़कर रखता है ।
पापोंको मनुष्य क्यों रखता है ?
इनका आदर क्यों करता है ?
क्या पाप सुखदायी हैं ?
एक तो इसके भावना यह है कि पाप नष्ट नहीं होंगे । हमारे पाप
ऐसे जल्दी नष्ट नहीं होंगे । आप जब संकल्प रखोगे कि ये नष्ट नहीं होंगे तो वे कैसे
नष्ट होंगे ? अर्जुनने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ पाप क्यों करता है ?
तो भगवान्ने उत्तर दिया ‘काम
एष क्रोध एष’ काम ही क्रोध है और पाप होनेमें कारण कामना है । इनको पकड़कर
रखेंगे तो पाप रहेंगे ही; क्योंकि पापके बापको पकड़ लिया आपने । अब बेटा पैदा होगा ही ।
पाप किससे होते हैं ? पाप सब होते हैं कामनासे, भोग-भोगनेकी
और पदार्थोंके संग्रहकी इच्छासे । यह इच्छा है पापका बाप ।
पापका बाप
एक प्रसिद्ध कहानी है‒एक पण्डितजी काशीसे पढ़कर आये । ब्याह हुआ,
स्त्री आयी । कई दिन हो गये । एक दिन स्त्रीने प्रश्न पूछा कि
‘पण्डितजी महाराज ! यह तो बताओ कि पापका बाप कौन है ?’ पण्डितजी पोथी देखते रहे,
पर पता नहीं लगा, उत्तर नहीं दे सके । अब बड़ी शर्म आयी कि स्त्री पूछती है पापका
बाप कौन है ? हमने इतनी पढ़ाई की,
पर पता नहीं लगा । वे वापस काशी जाने लगे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे |