।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७१, गुरुवार
मानसमें नाम-वन्दना

               
                                             

 
 (गत ब्लॉगसे आगेका)

मार्गमें ही एक वेश्या रहती थी । उसने सुन रखा था कि पण्डितजी काशी पढ़कर आये हैं । उसने पूछा‒कहाँ जा रहे हैं महाराज ? तो बोले‒‘मैं काशी जा रहा हूँ ।’ काशी क्यों जा रहे हैं ? आप तो पढ़कर आये हैं ? तो बोले‒‘क्या करूँ ? मेरे घरमें स्त्रीने यह प्रश्र पूछ लिया कि पापका बाप कौन है ? मेरेको उत्तर देना आया नहीं । अब पढ़ाई करके देखूँगा कि पापका बाप कौन है ? वह वेश्या बोली‒‘आप वहाँ क्यों जाते हो ? यह तो मैं यहीं बता सकती हूँ आपको ।’

बहुत अच्छी बात । इतनी दूर जाना ही नहीं पड़ेगा । आप घरपर पधारो । आपको पापका बाप मैं बताऊँगी ।’ अमावस्याके एक दिन पहले पण्डितजी महाराजको अपने घर बुलाया । सौ रुपया सामने भेंट दे दिये और कहा कि महाराज ! आप मेरे यहाँ कल भोजन करो ।’ पण्डितजीने कह दिया‒क्या हर्ज है, कर लेंगे ! पण्डितजीके लिये रसोई बनानेका सब सामान तैयार कर दिया । अब पण्डितजी महाराज पधार गये और रसोई बनाने लगे तो वह बोली‒देखो, पक्की रसोई तो आप पाते ही हो, कच्ची रसोई हरेकके हाथकी नहीं पाते । पक्की रसोई मैं बना दूँ, आप पा लेना’ ! ऐसा कहकर सौ रुपये पासमें और रख दिये । उन्होंने देखा कि पक्की रसोई हम दूसरोंके हाथकी लेते ही हैं, कोई हर्ज नहीं, ऐसा करके स्वीकार कर लिया । अब रसोई बनाकर पण्डितजीको परोस दिया । सौ रुपये और पण्डितजी महाराजके आगे रख दिये और नमस्कार करके बोली‒‘महाराज ! जब मेरे हाथसे बनी रसोई आप पा रहें हैं तो मैं अपने हाथसे ग्रास दे दूँ । हाथ तो वे ही हैं, जिनसे रसोई बनायी है, ऐसी कृपा करो ।’ पण्डितजी तैयार हो गये उसकी बातपर । उसने ग्रासको मुँहके सामने किया और उन्होंने ज्यों ही ग्रास लेनेके लिये मुँह खोला कि उठाकर मारी थप्पड़ जोरसे, और वह बोली‒‘अभीतक आपको ज्ञान नहीं हुआ ? खबरदार ! जो मेरे घरका अन्न खाया तो ! आप जैसे पण्डितका मैं धर्म-भ्रष्ट करना नहीं चाहती । यह तो मैंने पापका बाप कौन है, इसका ज्ञान कराया है ।’ रुपये ज्यों-ज्यों आगे रखते गये पण्डितजी ढीले होते गये ।

इससे सिद्ध क्या हुआ ? पापका बाप कौन हुआ ? रुपयोंका लोभ ! त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः’ (गीता १६ । २१)काम, क्रोध और लोभ‒ये नरकके खास दरवाजे हैं ।

पर  उपदेस  कुसल बहुतेरे ।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥
                            (मानस, लंकाकाण्ड, दोहा ७८ । २)

दूसरोंको उपदेश देनेमें तो लोग कुशल होते हैं, परंतु उपदेशके अनुसार ही खुद आचरण करनेवाले बहुत ही कम लोग होते हैं ।
   
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे