।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७१, शनिवार

मानसमें नाम-वन्दना

                     
 (गत ब्लॉगसे आगेका)


ध्रुवजीकी विमाताने राजाकी गोदसे उनको नीचे उतार दिया और कहने लगी‒‘चल यहाँसे, तू लायक नहीं है । राजाकी गोदमें बैठना था तो मेरी कोखसे पैदा होता ।’ वे रोने लगे और अपनी माँके पास गये । माँने भी कहा‒बात तो ठीक है बेटा ! तेरी छोटी माँने जो कहा, वह ठीक ही है । तूने और मैंने भजन किया नहीं, इस कारण आज यह दशा हुई है ।’ तब ध्रुव बोला‒‘मैं अब भजन करूँगा ।’ वे राजगद्दीकी वासना लेकर भजन करने गये, इसलिये अर्थार्थी भक्त कहलाये ।

जिज्ञासु भक्तोंमें उद्धव, अर्जुन आदिके नाम लिये जाते हैं । एकादश स्कन्धमें भगवान्‌ने उद्धवजीको उपदेश दिया । उस उपदेशको उद्धवगीता’ कहते हैं । अर्जुनको भगवान्‌ने जो उपदेश दिया, उसे भगवद्गीताके नामसे कहते हैं । ये दोनों (उद्धव और अर्जुन) जिज्ञासु भक्त कहलाते हैं ।

जो नित्य-निरन्तर परमात्मतत्त्वमें ही रहते हैं, जिनके कोई कामना नहीं, ऐसे ज्ञानी भक्त शुकदेवजी हुए हैं । शुकदेवजी बारह वर्षतक गर्भवासमें ही रहे । उनके मनमें विचार आया कि बाहर आते ही भगवान्‌की माया घेर लेगी और मैं फँस जाऊँगा । इस कारण वे भीतर ही भगवान्‌के भजनमें लगे रहे । जब नारदजीने भगवान्‌से आश्वासन दिलवाया, तब वे बाहर आये और जन्मते ही घरसे निकल गये । व्यासजी महाराज पुत्र ! पुत्र !!’ आवाज देते चले जा रहे थे । पहाड़ोंसे वापस पुत्र ! पुत्र !!’ आवाज आयी । मानो सबसे एक हुए शुकदेवजी मुनि हैं, वे उस समय वृक्षोंमेंसे बोल उठे‒‘पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुः’ ऐसे सबके हृदयमें विराजमान ज्ञानी भक्त शुकदेवजीको सूतजी नमस्कार करते हैं ।

यं      प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु-
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥

व्यासजीके बुलानेपर भी शुकदेवजी वापस नहीं आये । जंगलमें ही भजन-स्मरणमें लग गये । व्यासजी महाराजने भागवत ग्रन्थ बनाया और अपने ब्रह्मचारियोंको सिखाने लगे । एक बार कुछ ब्रह्मचारियोंसे कहा कि पुष्प, समिधा आदि यज्ञके लिये ले आओ । वे उस जंगलमें वहाँ चले गये, जहाँ व्यासजीके पुत्र शुकदेवजी बैठे भजन-ध्यान कर रहे थे । वहाँपर ब्रह्मचारी ऐसे श्लोक पढ़ने लगे‒

अहो बकी यं  स्तनकालकूटं  जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।

लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालु शरणं व्रजेम ॥

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे