।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७१, शुक्रवार
करणसे अतीत तत्त्व

                             
               
   
 (गत ब्लॉगसे आगेका)
पकड़में आनेवाली चीज छोटी होती है और पकड़नेवाला बड़ा होता है । नेत्रोंसे वही वस्तु दीखती है, जो नेत्रोंकी पकड़में (अन्तर्गत) आती है । इन्द्रियोंसे उसी वस्तुका ज्ञान होता है, जो इन्द्रियोंसे छोटा होता है । कार्यमें कारण तो रहता है, पर कार्यके अन्तर्गत कारण नहीं आ सकता; जैसे‒घड़ेमें पृथ्वी (मिट्टी) तो रहती है, पर घड़ेके अन्तर्गत पृथ्वी नहीं आ सकती । प्रकृति कारण है और वृत्ति कार्य है । जब वृत्तिसे प्रकृतिको भी नहीं पकड़ा जा सकता, तो फिर प्रकृतिसे अतीत पस्मात्मतत्त्वको कैसे पकड़ा जा सकता है ? जब परमात्मतत्त्वतक प्रकृति भी नहीं पहुँचती, तो फिर प्रकृतिका कार्य वृत्ति वहाँतक कैसे पहुँचेगी ?

मनसैवानुद्रष्टव्यम्’ में मनका सांसारिक विषयोंसे, जड़तासे विमुख होना है । मन जड़तासे तो हट जाता है और चेतन तत्त्वको पकड़ नहीं सकता, तब वह थककर स्वतः शान्त हो जाता है[*] । तात्पर्य है कि ध्यानयोगमें साधक अपने मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगानेका अभ्यास करता है । मनका संसारसे हटना ही परमात्मामें लगना है । अतः वृत्ति केवल संसारके त्यागमें ही काम आती है । जैसे, लकड़ीको जलाकर अग्नि भी स्वतः शान्त हो जाती है, ऐसे ही संसारका त्याग होनेपर वृत्तिका भी स्वतः त्याग हो जाता है । अतः वास्तवमें वृत्ति संसारकी निवृत्तिमें ही काम आती है तत्त्वकी प्राप्तिमें नहीं । इसलिये मनसैवानुद्रष्टव्यम्’ का तात्पर्य निषेधमें ही है, विधिमें नहीं[†]

जैसे कोई राजा रथपर बैठकर रनिवासतक जाता है तो वह रथको बाहर ही छोड़ देता है और अकेले रनिवासके भीतर जाता है, ऐसे ही करणसापेक्ष साधन करनेवाला भी अन्तमें करणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करके अकेले (स्वयं) ही परमात्मतत्वमें प्रवेश करता है । जैसे रथके सम्बन्धसे मनुष्य रथी’ कहलाता है, ऐसे ही अहम्‌के सम्बन्धसे आत्मा जीव’ कहलाता है । जब वह अहम्‌का सम्बन्ध छोड़ देता है, तब जीवपना नहीं रहता, प्रत्युत एक तत्त्व रहता है । इसलिये जीवको ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत ब्रह्मको ही ब्रह्मकी प्राप्ति होती है‒‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति’ (बृहदा ४ । ४ । ६) । तात्पर्य है कि जीवभाव मिटनेपर एक ब्रह्म ही ज्यों-का-त्यों रह जाता है ।

एक मार्मिक बात है कि जडताके द्वारा जडताका त्याग नहीं हो सकता, प्रत्युत जड-उपहित चेतनके द्वारा ही जडताका त्याग हो सकता है । अतः वृत्ति-उपहित चेतन ही संसारकी निवृत्ति करता है, वृत्ति नहीं । कारण कि वृत्ति खुद ही जड है, फिर वह जडताकी निवृत्ति कैसे करेगी ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे




[*] यत्रोपरमते    चित्तं    निरुद्ध   योगसेवया ।
    यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
                                                          (गीता ६ । २०)
[†] गीतामें आये ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति’ (१३ । २४), चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते’ (६ । १८), आत्मसंस्थ मनः कृत्वा’ (६ । २५), पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः’ (१५ । १०) आदि पदोंका भी यही भाव समझना चाहिये ।