।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७१, शनिवार

करणसे अतीत तत्त्व
                             
             


   
 (गत ब्लॉगसे आगेका)


मुख्य बात यह है कि जडके द्वारा चेतनका ज्ञान नहीं होता । अगर जडके द्वारा चेतनका ज्ञान हो जाय तो विशेषता जडकी ही हुई, चेतनकी नहीं; क्योंकि जड ज्ञानका जनक हुआ और ज्ञान जन्य हुआ ।
यन्मनसा न मनुते’ और मनसैवानुद्रष्टव्यम्’ आदि पदोंसे यह भाव भी निकलता है कि मन-बुद्धि तो परमात्मातक नहीं पहुँच सकते, पर सर्वसमर्थ तथा सर्वव्यापी परमात्मा मन-बुद्धितक पहुँच ही सकते हैं । इतना ही नहीं, मन-बुद्धिके द्वारा परमात्माका ही ग्रहण होता है; क्योंकि परमात्माके सिवाय और कोई सत्ता विद्यमान है ही नहीं । इसलिये भगवान् कहते हैं‒
मनसा वचसा दृष्टद्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव न  मत्तोऽन्यदिति  बुध्यध्वमञ्जसा ॥
                                      (श्रीमद्भा ११ । १३ । २४)

मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अतः मेरे सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है‒यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार कर लें ।’

प्रश्न‒गीतामें परमात्मप्राप्तिसे होनेवाले आत्यन्तिक सुखकी बुद्धिग्राह्य कहा गया है‒‘सुखमात्यन्तिक यत्तद्‌बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्’ (६ । २१) । जब प्रकृतिसे अतीत सुखको बुद्धि नहीं पकड़ सकती तो वह बुद्धिग्राह्य कैसे हुआ ?

उत्तर‒आत्यन्तिक सुखको बुद्धिग्राह्य कहनेका यह तात्पर्य नहीं है कि वह बुद्धिकी पकड़में आनेवाला है । बुद्धि तो प्रकृतिका कार्य है, फिर वह प्रकृतिसे अतीत सुखको कैसे पकड़ सकती है ? इसलिये अविनाशी सुखको बुद्धिग्राह्य कहनेका तात्पर्य उस सुखको तामस सुखसे विलक्षण बतानेमें ही है । निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न होनेवाला सुख तामस होता है[1] । गाढ़ निद्रा (सुषुप्ति ) में बुद्धि अविद्यामें लीन हो जाती है और आलस्य तथा प्रमादमें बुद्धि पूरी तरह जाग्रत् नहीं रहती । परन्तु स्वतःसिद्ध अविनाशी सुखमें बुद्धि अविद्यामें लीन नहीं होती, प्रत्युत पूरी तरह जाग्रत् रहती है । अतः बुद्धिकी जागृतिकी दृष्टिसे ही उसको बुद्धिग्राह्य’ कहा गया है । वास्तवमें बुद्धि वहाँतक पहुँचती ही नहीं । इसी तरह अविनाशी सुखको आत्यन्तिक’ कहकर उसको सात्त्विक सुखसे और अतीन्द्रिय’ कहकर उसको राजस सुखसे विलक्षण बताया गया है ।

जैसे दर्पणमें सूर्य नहीं आता, प्रत्युत सूर्यका बिम्ब आता है, ऐसे ही बुद्धिमें वह आत्यन्तिक सुख नहीं आता, प्रत्युत उस सुखका बिम्ब, आभास आता है, इसलिये भी उसको बुद्धिग्राह्य’ कहा गया है ।

तात्पर्य यह हुआ कि स्वयंका शाश्वत सुख सात्त्विक, राजस और तामस सुखसे भी अत्यन्त विलक्षण अर्थात् गुणातीत है । उसको बुद्धिग्राह्य कहनेपर भी वास्तवमें वह बुद्धिसे सर्वथा अतीत है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१)

उपनिषद्‌में आया है‒
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था  अर्थेभ्यश्च  परं  मनः ।
मनसस्तु   परा   बुद्धिर्बुद्धेरात्मा  महान्परः ॥
महतः      परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः     परः ।
पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥
                                           (कठ १ । ३ । १०-११)

‘इन्द्रियोंसे विषय पर हैं, विषयोंसे मन पर है, मनसे बुद्धि पर है और बुद्धिसे महान् आत्मा (महत्तत्त्व) पर है, महत्तत्त्वसे अव्यक्त (मूल प्रकृति) पर है और अव्यक्तसे भी पुरुष पर है । पुरुषसे पर और कुछ नहीं है । वही पराकाष्ठा (अन्तिम सीमा) है, वही परा गति है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे



[1] यदग्रे चानुबन्धे च   सुखं मोहनमात्मनः ।
   निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥
                                                     (गीता १८ । ३९)